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क्रम नियमितपर्यायमीमांसा
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व्यवहार रत्नत्रयके आधार पर ही होती है जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इस तरह मोक्षके साक्षात् कारणभूत निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्तिका कारण होनेसे व्यवहार रत्नत्रयमें भी परम्परया मोक्षकारणता सिद्ध हो जाती है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार निश्चय रत्नत्रय मोक्षका कारण होनेसे धर्म है उसी प्रकार व्यवहार रत्नत्रय भी मोक्षका कारण होनेसे धर्म है । केवल यह विशेषता है कि निश्चय रत्नत्रय मोक्षका साक्षात् कारण होनेसे जहाँ निश्चय धर्म है वहाँ व्यवहार रत्नत्रय मोक्षका परम्परया अर्थात् निश्चय रत्नत्रयका कारण होकर कारण होनेसे व्यवहार धर्म है ।
(१२) उनका यह भी कहना है कि केवलज्ञान अपने आपमें जीवकी स्वपरप्रत्यय पर्याय है, इसलिए वह जीवके स्वभावभूत ज्ञायकभावकी पूर्ण विकासरूप परिणति होनेके कारण अपने आपमें प्रगट होकर भी तबतक प्रगट नहीं होती है जबतक ज्ञानावरणादि कर्मोंका सर्वथा क्षय नहीं हो जाता है ।
(१३) उनका यह भी कहना है कि निमित्त कार्य में तबतक उपयोगी है जबतक कार्य निष्पन्न नहीं हो जाता है यानि कार्यके निष्पन्न हो जानेपर निमित्तकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। लेकिन उपादानकी उपयोगिता चूँकि कार्य निष्पन्न होनेसे पूर्व और पश्चात् सतत बनी रहती है, अत: उपादान सर्वदा उपयोगी ही बना रहता है ।
(१४) उनका यह भी कहना है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रदेशोंकी घटाबढी आधारपर कोई द्रव्यपर्याय नही बनती है, उनमें तो केवल परद्रव्यके साथ होनेवाली स्पृष्टता अथवा बद्धताके आधारपर ही यथायोग्य द्रव्यपर्यायें बनती हैं अतः वे सभी द्रव्यपर्यायें परप्रत्यय ही हैं, स्वप्रत्यय नहीं ।
ऐसा कहनेवाले वे महाशय यह तो स्वीकार करते हैं कि केवलज्ञानके अनुसार सभी पर्यायें अपने-अपने नियत समयपर ही होती हैं, सम्यग्दृष्टि की ऐसी ही श्रद्धा रहती है । पर वे जिस श्रुतज्ञानके बलपर पर्यायोंमें अनियत क्रम स्वीकार करते हैं उनका वह श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टिकी श्रद्धा होनेसे मिथ्यादृष्टियोंका ही श्रुतज्ञान होगा ऐसा मानना ही पड़ता है और मिथ्यादृष्टियोंका जो भी श्रुतज्ञान होता है उसे सम्यक् श्रुतज्ञान तो वे महाशय भी नहीं स्वीकार करेंगे। ऐसी अवस्थामें मिथ्यादृष्टियोंके मिथ्या श्रुतज्ञानके बलपर ही वे पर्यायोंके अनियत