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षट्कारकमीमांसा
२०३ केवल निश्चय पदकारकको चरितार्थता
इस प्रकार उक्त विवेचनसे प्रत्येक स्वभावपर्याय स्वोन्मुख होकर आत्मस्थितिके काल में ही प्रगट होती है यह स्पष्ट हो जानेपर उस कालमें षट्कारक प्रक्रियाका आगममें जिस प्रकार निर्देश किया गया है उसे यहाँ स्पष्ट किया जाता है
अयमात्मात्मनात्मानमात्मन्यात्मन आत्मने ।
समादधानो हि परां विशुद्धि प्रतिपद्यते ॥ ११६ ॥ स्वसंवेदनसे सुव्यक्त हुआ यह आत्मा निर्विकल्पस्वरूप अपने आत्मामें करण ( इन्द्रियाँ ) और मनद्वारा उत्पन्न हुए ज्ञानसे मुक्त होकर अपने स्वसंवेदनस्वरूप स्वके द्वारा अपने शुद्ध चिदानन्दरूप निज आत्माकी प्रासिके लिये शुद्ध चिदानन्दमय स्वको ध्याता हुआ क्रमश: उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होता है ।। ११३ ॥
स्वानुभूतिके कालमें जो एकाग्रता होती है उसीको यहाँ स्पष्ट किया गया है। ऐसा आत्मा स्वयम्भू कैसे बनता है इसका निर्देश करते हुए प्रवचनसार गाथा १६ की तत्त्वदीपिका टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रदेव लिखते हैं
अय खल्वात्मा शुद्धोपयोगभावनानुभावप्रत्यस्तमितसमस्तघातिकर्मतया समुपलब्धशुद्धानन्तशक्तिचित्स्वभाव' शुद्धानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात् गृहीतकर्तृत्वाधिकार शुद्धानन्तशक्तिज्ञान विपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन् शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुबिधाण शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन कर्मणा ममाश्रियमाणत्वात् सम्प्रदानत्वं दधानः शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकल्पज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवल्वालम्बनादपादानत्वमुपाददान' शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्य भावस्थाधारभूतत्वादधिकरणत्व मात्मसात्कुर्वाण. स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमानः उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्य-भावभेदभिन्नातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयम्भूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति, यत शुद्धात्मस्वभाव लाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रत्तया परतन्त्रभूयते ॥ १६ ॥
शद्धोपयोगकी भावनाके प्रभाववश द्रव्य-भावरूप समस्त घातिकर्मोको नष्ट करनेसे शुद्ध अनन्तशक्ति युक्त अपने चैतन्यस्वभावको उपलब्ध करनेवाले (१) जिस आत्माने शुद्ध अनन्त शक्तिरूप शायकस्वभावके कारण