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जैनतत्त्वमीमांसा है और अकेला वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सज्ञाको प्राप्त होता है ।। १४४ ।।
इसकी आत्माख्याति टीकामे आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं .....
समस्त नय पक्षोंके द्वारा क्षुभित न किये जानेसे जिसका समस्त विकल्पोंका व्यापार रुक गया है ऐसा जो समयसार है वास्तवमें वह एक ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान संज्ञाको धारण करता है । हेतु पूर्वक उसीको स्पष्ट करते हैं-सर्वप्रथम श्रुतज्ञानके द्वारा ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करके तदनन्तर जिसने आत्माको प्रकट प्रसिद्धिके लिए पर पदार्थोकी प्रसिद्धिके कारणभत इन्द्रिय और मनपूर्वक प्रवर्तमान बुद्धियोंको जानकर जिसने मतिज्ञानको आत्माके सन्मुख किया है तथा नानाप्रकारके नयपक्षोंके अवलम्बनसे होनेवाले अनेक विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान सम्बन्धी बुद्धियोको भी जान कर जिसने श्रुतज्ञान तत्त्वको भी आत्माभिमुख किया है और इस प्रकार जो अत्यन्त निर्विकल्प हुआ है वह तत्काल निज रससे प्रगट होते हुए, आदिमध्य-अन्तसे रहित, अनाकुल, केवल एक, मानो सम्पूर्ण विश्व पर तैर रहा है अर्थात् समस्त जगत्से भिन्न ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानघन, परमात्मस्वरूप समयसारको जब अनुभवता है तभी आत्मा सम्यक दृष्टिगोचर होनेके साथ ज्ञात होता है, इससे स्पष्ट है कि समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
इस प्रकार हम जानते है कि जो विकल्पातिक्रान्त स्वानुभति है वही सम्यग्दर्शन है और वही सम्यग्ज्ञान है। विचार कर देखा जाय तो वही सम्यकचारित्र है। ये तीनों एक आत्मा ही हैं। इस दृष्टिसे इनमे भेद नही है, भेददृष्ष्टिसे देखनेपर भी इन तीनोंका उदय एक कालमें ही होता है। सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रमे जो तारतम्य दिखलाई देता है वह दोष और प्रतिबन्धक कर्मोके क्षयोपशमकी हीनाधिकताके कारण ही दृष्टिगोचर होता है।
शका-चतुर्थ गुणस्थानमे जब चारित्रमोहनीयका क्षयोपशम स्वीकार नहीं किया गया है तब सम्यक् चारित्र कैसे बन सकता है ?
समाधान-सम्यग्दर्शनको स्वरूपकी स्वानुभूतिरूप स्वीकार करनेसे हो वहाँ सम्यक्त्वाचरणरूप सम्यक्चारित्र स्वीकार किया गया है । इसीका दूसरा नाम स्वरूपाचरण चारित्र भी है जो दर्शन मोहनीयके साथ अनन्तानुबन्धी कषायके अभावमें होता है। अनन्तानुबन्धीको चारित्रमोहनीयमें गभित करनेका यही कारण है।