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कर्तृ-कर्ममीमांसा
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होनेको पुण्य भाव कहा है और (पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें) अशुभ भावके होनेको पापभाव कहा है। किन्तु जो परिणाम पुण्य-पाप रूपसे अन्य रूप नहीं होता अर्थात आत्मातिरिक्त लोकमें जितने भी पदार्थ हैं उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि नहीं करता उसे ही परमागममें दुक्खके क्षयका कारण मोक्षस्वरूप कहा है || २-८९||
इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तवमें दो द्रव्यों में कर्ता कर्मपना तो नहीं है । जो आगममें सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीवको घटादि कार्यों का कर्ता कहा गया है सो वह भी लौकिकजनोंके अनादिरूढ विकल्पको ध्यानमें रखकर ही कहा गया है । शेष द्रव्योंमें निमित्तपनेकी अपेक्षा कर्ता-कर्म व्यवहार न तो घटित ही होता है और न आगम ही ऐसे व्यवहारको प्रमुखतासे स्वीकार करता है । इतना अवश्य है कि जिन कार्यों में उक्त जीवोंकी अपेक्षा कर्ता व्यवहार किया गया है उनमेंसे किन्हीं - किन्हीं कार्योकी अपेक्षा पुद्गल स्कन्धोंमें करण व्यवहार अवश्य किया गया है। इसके लिए तत्त्वार्थवार्तिक अ० १, सू० १ का यह उल्लेख दृष्टव्य है-
करण द्वधा विभक्ताविभक्त कर्तृ कभेदात् । कर्तुरन्यद् विभक्तकर्तृ कम् यथा परशुना छिनत्ति देवदत इति । कर्तुरनन्यदविभक्तकर्ता कम् । यथाग्निरिन्धनं दयत्यौष्ण्येन इति ।
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विभक्त कर्तृककरण और अविभक्त कर्तृककरणके भेदसे करण दो प्रकारका है । कर्तासे भिन्न करण विभक्तकर्तृक करण है । जैसे देवदत्त परशुसे छेदता है । कर्तासे अभिन्न अविभक्तकर्तृक करण है । जैसे अपने उष्ण परिणामसे अग्नि ईंधनको दहन करती है ।
यहाँ विकल्प और क्रिया परिणामसे युक्त देवदत्त कर्तारूपसे व्यवहृत हुआ है और छिदिक्रियाकी अपेक्षा फरसामें करण व्यवहार किया गया है । यह एक उदाहरण है। इससे पूर्वोक्त तथ्योंपर ही विशदरूपसे प्रकाश पड़ता है !
इतना अवश्य है कि आचार्य कुन्दकुन्दने एकेन्द्रिय जीव विशेषोंको जीव कहकर भी नामकर्मकी प्रकृतियाँ बतलाते हुए उनको जो करणरूप नामकर्मकी प्रकृतियोंसे रचित कहा है ( स० सा०, गा० ६५-६६ ) सो यहाँ पर एक तो स्वभावभूत जीवसे जीवविशेषोंको पृथक् करना उनका प्रयोजन रहा है । कारण कि औदयिक भावपरिणत जीवविशेषोंका अन्वयव्यतिरेक कर्मोदयके साथ है, स्वभावके साथ नहीं। दूसरे स्वभाव दृष्टिसे भेद व्यवहारको भी गौण कराया गया है। उन्होंने इस सरणिको