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जेनलस्वमीमांसा
रूप परिणतिमें स्थित संसारी जीव और पुद्गलस्कन्धका जब भी जो कार्य होता है उसके करनेमें वे स्वतन्त्र हैं ।
देखो जो मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होकर मोक्षका इच्छुक है वह पुण्य और पाप दोनोंमें भेद नहीं करता, इसलिए दोनोंके प्रति समान दृष्टि रख कर ही मोक्षमार्गी बननेका अधिकारी होता है । जब यह स्थिति है तब वह पर वस्तुको दृष्ट और अनिष्ट मानकर उससे लाभ और अलाभकी कल्पना ही कैसे कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं कर सकता। फिर पर द्रव्यमें अन्यका कार्यकारीपना या कर्तापना कैसे मान सकता है, कभी नहीं मान सकता है । पर द्रव्यमें अन्य द्रव्यके कार्यकी जो कारणता व्यवहारसे स्वीकार की गई है वह मात्र बाह्य व्याप्तिवश प्रयोजन विशेष को ध्यान में रखकर ही स्वीकार की गई है, निश्चय उपादानके समान वह परमार्थसे प्रत्येक कार्यका नियामक है, इसलिए नहीं । मोक्षके इच्छुक किसी भी जीवको अपना परिणाम अन्यवश अर्थात् रागादिवश नहीं होने देना चाहिए । आगममें यह उपदेश उक्त प्रयोजनको ध्यानमें रखकर ही दिया गया है | अभिप्रायपूर्वक परका संग करनेसे होनेवाले कार्योंमे और अकेले होनेके कार्य में यदि कोई अन्तर है तो वह यही है कि जो मोक्षमार्गपर आरूढ़ है वह पंचेन्द्रियोंके विषयोंको लक्ष्य कर राग-द्वेषके अधीन नहीं होता, इसलिए उसकी दृष्टि में वे सुतरां गौण हो जाते हैं । यह सब दृष्टिका खेल है - बाहर की ओर दृष्टि फेरनेसे जहाँ संसारकी वृद्धि होती है वहीं ज्ञान-वैराग्य शक्तिसे सम्पन्न होकर भीतर की ओर दृष्टि के पलटने से आत्मकल्याणका मार्ग प्रशस्त होता है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसारमें कहा भी है
कत्ता करण कम्मं फल व अप्पत्ति णिच्छिदो समणो ।
परिणमदि णेव अण्ण जदि अप्पाण लहदि सुद्धं ॥२, २४॥
जो श्रमण आत्मा ही कर्ता है, भात्मा ही कर्म है, आत्मा ही करण है और आत्मा ही उसका फल है ऐसा निश्चय कर अपने विकल्प द्वारा यदि अन्यरूप नहीं परिणमता है तो शुद्ध (अकेले ) आत्माको प्राप्त करता है, क्योंकि स्वभावस्वरूप आत्माको प्राप्त करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है ।
इसी तथ्यको दूसरे शब्दोंमें व्यक्त करते हुए उसी परमागममें आचार्य - देव पुनः कहते हैं
सुपरिणामो पुष्णं असुहो पाव ति भणिय मण्णेसु । परिणामोऽणण्णगओ दुक्खक्खयकारण स-ये ।। २-८९ ॥
अन्यमें (परमार्थस्वरूप देवादिकमें या बाह्य व्रतादिकमें) शुभ परिणामके