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कर्तृ-कर्ममीमांसा , जो परिणमता है वह कर्ता है, उसका जो परिणाम होता है यह कर्म है जो उसकी परिणति है वह क्रिया है। ये तीनों वस्तुपनेसे भिन्न नहीं
प्रत्येक वस्तु अकेली सदा (प्रतिसमय) स्वयं परिणमती है, एकका ही सदा (प्रतिसमय) स्वतन्त्ररूपसे परिणाम होता है और एककी ही स्वतन्त्र रूपसे प्रतिसमय परिणति होती है। क्योंकि उक्त प्रकारसे वे अनेक (भेद) होने पर भी वस्तु एक ही है ॥५२॥
दो द्रव्य एक होकर नहीं परिणमते, सदा काल प्रतिसमय दो द्रव्यों का एक परिणाम नहीं होता और दो द्रव्योंकी प्रति समय एक परिणति नहीं होती, क्योंकि जो अनेक द्रव्य हैं वे सदा अनेक ही बने रहते हैं, वे परस्पर समर्पण कर एक नही हो जाते ॥५३॥
यहाँ कर्ता, कर्म और क्रिया इन तीनों रूपोंमें प्रत्येक द्रव्य अन्य द्रव्योंसे अत्यन्त भिन्न है । उनमें त्रैकालिक अत्यन्ताभाव है यह बतलाया गया है। इसलिए प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें अपने कार्यका स्वयं ही कर्ता है, क्योंकि प्रत्येक पर्याय स्वरूपसे व्याप्य होती है और प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायका स्वरूपसे व्यापक होता है। ऐसा व्याप-व्यापकभाव दो द्रव्योंके मध्य द्रव्यपनेकी अपेक्षा, गुणपनेकी अपेक्षा और पर्याय-. पनेकी अपेक्षा किसी भी प्रकारसे स्वरूपसे नहीं पाया जाता है। अतः एक द्रव्यका प्रति समय एक ही परिणाम होता है, वह दोका मिलकर नहीं होता और एक द्रव्य किसी भी समय अपना भी परिणाम करे और दूसरेका भी परिणाम करे ऐसी भी नही हो सकता, यह सिद्धान्त निश्चित होता है। ७. शंका-समाधान शका-समयसार कलशमें कहा है
विकल्पक' परं कर्ता विकल्प. कर्म केवलम् ।
न जातु कर्तृ-कर्मस्व सविकल्पस्य नश्यति ॥९४॥ विकल्प करनेवाला सबसे बड़ा कर्ता है और विकल्प ही उसका केवल कर्म है। जो विकल्प सहित होकर वर्तता रहता है उसका कर्तृकर्मभाव कभी भी नाशको प्राप्त नहीं होता ॥९४॥
शंका यह है कि अभी इसके पहले परिणमनेवालेको कर्ता कहा गया है और परिणमनेसे जो परिणामरूप कार्य होता है उसे कर्म कहा गया है और यहाँ विकल्प करनेवालेको कर्ता कहा गया है और उसके