________________
Mamme
-
MIMPRIDAONOMARWAROOPawwarma
ANSupesheeMIN wwe
w sMeenadinewMAMMITredadahayoranाल
१५४
जैनतत्त्वमीमांसा समाधान चाहे दृष्टिगोचर नोकर्म हों और चाहे दृष्टिगोचर न होने१ वाले कर्म हो या नोकर्म भी हों उनसे निवृत्त होनेका एक ही उपाय है
और वह इष्ट अनिष्ट मानकर नोकर्मकी ओर नहीं रुझान करना तथा कर्मको कारक निमित्त कर हुई आत्माकी विविध अवस्थाओं में स्वत्व बुद्धि नहीं करना और यह तभी सम्भव है जब अपने त्रिकाली ज्ञायक| स्वरूप आत्माको अपने उपयोगका विषय बनाकर उसमें दो निरन्तर | रममाण होने का उपाय करते रहना । ६ कर्ता-कर्म विषयक सारभूत सिद्धान्त
यही कारण है कि समयसारमे कर्ता-कर्मके विषयमें यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है
कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणाम ।
ण करेइ एय मादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।७५।। जो आत्मा कर्मके परिणामको और उसी प्रकार नोकर्मके परिणाम को नहीं करता है, मात्र उनको जानता है वह ज्ञानी है यहाँ कर्मके परिणाम पदसे राग-द्वेष आदिका भी ग्रहण हो जाता है ।।७५।।
यह तो हम पहले ही बतला आये है कि नैयायिक सर्वथा भेदवादी दर्शन है। उसमें एक तो समवायी कारणके समवाय सम्बन्धसे ही कार्य उसका कहा जाता है, है वह समवायी कारणसे भिन्न ही। दूसरे समवायी कारणको किसी भी प्रकार परिणाम स्वभाववाला नही माना गया है। किन्तु यह स्थिति जैनदर्शनकी नहीं है। उसमे कर्ता, कर्म (कार्य) और क्रिया तीनोको एक वस्तुपनेकी दृष्टिसे अभिन्न माना गया है । इसलिए इस दर्शनमे कार्यरूप परिणत हुआ द्रव्य ही उसका कर्ता ठहरता है। इस कारण इस दर्शनमे कर्ताका लक्षण नैयायिक दर्शनके अनुसार न करके 'जो परिणमता है वह कर्ता है यह किया गया है। समयसारकी आत्मख्याति टीकामें इसका विस्तारसे विचार करते हुए लिखा है
य' परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणति क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतया ।।५१।। एक. परिणमति सदा परिणामो जायते सदकस्य । एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यत' ||५२।। नोभी परिणमतः खलु परिणामो नोभयो. प्रजायेत । उभयोर्न परिणति स्याद्यदनेक्रमनेकमेव सदा ॥५३॥