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कर्तृ-कर्ममीमांसा
१४७ ईश्वर ही उनका कर्ता होता है, क्योंकि अचेतन होनेसे वह 'चेतनाधिष्ठित होकर ही कार्यों में निमित्त होता है । और प्राणियोंके आत्माको अदृष्टका अधिष्ठाता मानना उचित नहीं है, क्योंकि प्राणियों को अदृष्ट और कारकसाकल्यका पूरा ज्ञान नहीं होता, इसलिये इस दर्शनके अनुसार निखिल जगत्का कर्ता एक ईश्वर ही हो सकता है, क्योंकि सब प्रकारसे कर्ताका लक्षण उसीमें घटित होता है। ___ यह नैयायिक दर्शनका हार्द है। मीमांसक आस्माके अस्तित्वको मानकर भी उसे सर्वथा अशुद्ध मानते हैं। साख्य सर्वथा शुद्ध मानते हैं। बौद्ध मोक्षको मानकर भी अनात्मवादी दर्शन है। चार्वाक नास्तिक होते हैं। इनके सिवाय और जितने ईश्वरवादी दर्शन है उन सबका नेता नैयायिक दर्शन है । वे सब नैयायिक दर्शनका ही अनुसरण करते हैं। ३. संक्षेपमें नैयायिक दर्शन की मीमांसा
किन्तु जगत्का कर्ता ईश्वर केवल कल्पना लोककी बात है। किसी भी प्रमाणसे उसकी सिद्धि नहीं होती। नैयायिक दर्शन उक्त प्रकारके ईश्वरको व्यापक और सर्वथा नित्य मानता है। इसलिये एक तो उसमें अर्थक्रिया घटित नही होती और अर्थक्रियाके अभावमें किसी भी वस्तु की सत्ता मानना आकाश फूलके माननेके समान है। दूसरे इसमें ज्ञान, क्रिया और प्रयत्नका समवाय सम्बन्धसे अस्तित्व मानने पर वह स्वरूपसे जड़ ठहरता है। तीसरे कार्यत्व हेतुसे उसका समर्थन करने पर वह व्यभिचरित हो जाता है, क्योंकि कर्तृत्व हेतु विपक्षरूप सशरीरी और अल्पज्ञ कुम्भकार में भी घटित हो जाता है। इसलिये परमार्थसे ईश्वर नामकी सदात्मक कोई वस्तु है यह सिद्ध नहीं होता। ४. जैन दर्शनका हार्द ____ इस स्थितिके प्रकाशमें अब जैनदर्शन पर विचार कीजिये । यह तो हम पहले ही बतला आये है कि इस दर्शनके अनुसार लोकमें जड़-चेतन जितने भी स्वतन्त्रसत्ताक द्रव्य हैं वे सब स्वरूपसे परिणामी नित्य है। प्रत्येक समयमें प्रत्येक द्रव्यकी एक पर्यायका व्यय होना और नवीन पर्यायका उत्पन्न होना यह उसका परिणाम स्वभाव है। तथा अपनी सब पर्यायोंमेंसे जाते हुए अन्वयरूपसे उसका सर्वदा स्थित रहना यह उसका नित्य स्वभाव है। इस प्रकार विलक्षण सम्पन्न प्रत्येक द्रव्य स्वरूपसे सत् है। जैनदर्शनके अनुसार कोई भी द्रव्य न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य ही है। किन्तु सामान्यकी अपेक्षा नित्य हैं और