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जनतत्त्वमीमांसा होता है। अन्य जितने दिशा, काल और आकाश आदि अचेतन पदार्थ और यथासम्भव सविकल्प मनुष्यादि सचेतन पदार्थ निमित्त होते हैं वे स्वतन्त्ररूपसे कर्ता नहीं होते। घटादि कार्योंको भी कुम्भकार आदि ईश्वरसे प्रेरित होकर ही करते हैं, इसलिए इन कार्योंके करनेमें वे भी स्वतन्त्र नहीं है । इस दर्शनमें ऐसे किसी भी कार्यको नही स्वीकार किया गया है जिसमें ईश्वरको कर्तारूपसे न स्वीकार किया गया हो। यही कारण है कि इस दर्शनमें निमित्त कारणोंके कोई भेद दृष्टिगोचर नही होते । और ऐसा होने पर भी इस दर्शनके अनुसार 'स्वतन्त्र. कर्ना' कतकि इस लक्षणमे कोई बाधा नही आती, क्योंकि प्रत्येक कार्यके करने में ईश्वर स्वतन्त्र है। प्रत्योक कार्य कब उत्पन्न हो और कब न उत्पन्न हो यह सब ईश्वरकी इच्छा पर निर्भर है। इसलिए इस दर्शनमे लौकिक दृष्टिसे प्ररक निमित्त कहो या निमित्त कर्ता कहो या उत्पादक कहो एक ईश्वर ही स्वीकार किया गया है क्योंकि वही प्राणियोंके अदष्ट आदिका विचार कर स्वतन्त्ररूपसे प्रत्येक कार्यकी सृष्टि करता है । इस आशयका उनके आगममें यह वचन भी प्रसिद्ध है
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मन. सुख-दु खयो ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्बभ्रमेव वा ।। यह जन्तु अज्ञ है और अपने सुख, दुःखका अनीश है, इसलिये ईश्वर से प्रेरित होकर स्वर्ग जाता है या नरक जाता है। अर्थात् कौन कहाँ जाय यह उसकी इच्छा पर निर्भर है।
यही कारण है कि नैयायिक दर्शनमे कर्ताका लक्षण इस प्रकार किया गया है
ज्ञान-चिकीर्पा-प्रयत्नाधारता हि कर्तृत्वम् ।
जो ज्ञान, चिकीर्षा ( करनेकी इच्छा ) और प्रयत्नका आधार है वह कर्ता है । इस दर्शनमें ईश्वरकी उपासनाका तात्पर्य भी यही है।
जब ईश्वर सब कार्योंका निमित्त कर्ता है तब वह स्वयं सब प्राणियों की सृष्टि, दुख-दुःख और भोग एक प्रकारके क्यों नहीं करता। इसका समाधान वह दर्शन इस प्रकार करता है कि ईश्वर प्राणियोंकी सृष्टि, सुख-दुःख और भोग सब प्राणियोंके अदृष्टके अनुसार ही करता है। इसका फलितार्थ है कि लोकमें द्वथणुकसे लेकर ऐसा एक भी कार्य नहीं होता जिन्हें प्राणियोंके अदृष्टको ध्यानमे रखकर ईश्वर न बनाता हो । किन्तु अदृष्ट अचेतन है । उसे कारक साकल्यका ज्ञान नही, इसलिये