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उभयनिमित-मीमांसा
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व्यवहार और निश्चयनयकी अपेक्षा जो षट्कारक व्यवस्था बतलाई गई है उसका आशय भी भले प्रकार समझमें आ जाता है । साथ ही यह भी समझमें आ जाता है कि आचार्यों ने व्यवहार कथनीको क्यों तो उपचरित बतलाया और निश्चय कथनीको क्यों परमार्थ स्वरूप बतलाया । प्रकृतमें जो जिसका न हो उसको व्यवहार प्रयोजन वश या व्यवहार हेतु वश उसका कहना व्यवहार है तथा जो जिसका हो उसको निश्चय प्रयोजन या निश्चय हेतुवश उसीका कहना निश्चय है । संसारी जीवोंके रागादिकी उत्पत्तिके मोहनीय आदि कर्म व्यवहार हेतु हैं, अतः इन रागादिको नैमित्तिक कहना व्यवहार है तथा इन रागादिको स्वकालके प्राप्त होने पर संसारी जीव स्वयं उत्पन्न करते है और उदयादिरूप पुद्गल कर्म उनके होनेमे स्वयं व्यवहार हेतु होते हैं, इतना विशेष है कि निश्चयनयका कथन पर निरपेक्ष होता है क्योंकि वह वस्तुका स्वरूप है । किन्तु व्यवहार नयका कथन पर सापेक्ष होता है, क्योंकि वह वस्तुका स्वरूप नहीं है । अतः रागादिको संसारी जीवोंका स्वयंकृत कार्य कहना निश्चय है । और पर निमित्तक कहना व्यवहार है । आगमज्ञ उसीका नाम है जो व्यवहारको व्यवहारनयसे ही स्वीकारता है और निश्चयको निश्चयनयसे ही स्वीकारता है । किन्तु जो उक्त कथनको विपरीतरूपसे जानते या कहते हैं वे आगमज्ञ कहलाने के अधिकारी नही हैं । इस तथ्यका समर्थन समयसार गाथा ४१४ की आत्मख्याति टीकाके इस वचनसे भले प्रकार होता है
ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धघा चेतयन्ते ते समयसारमेव न सचेतयन्ते । य एव परमार्थ परमार्थ बुद्ध्या चेतयन्ते ते एव समयसारं चेतयन्ते ।
इसलिये जो व्यवहारको ही परमार्थ बुद्धिसे अनुभवते हैं वे अकेले समयसारको नही अनुभवते तथा जो मात्र परमार्थको परमार्थ बुद्धिसे अनुभवते हैं वे ही समयसारको अनुभवते हैं ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार कथन व्यवहार स्वरूप ही है उसे वस्तु स्वरूप या वस्तुके कार्यका निश्चय कारण मानना आगमविरुद्ध है । इसलिये बाह्य कारण सहायक है यह कहना भी व्यवहार अर्थात् उपचरित ( कल्पना मात्र) हो जाता है |
यदि हम निमित्तपनेकी दृष्टिसे सविकल्प योगयुक्त अज्ञानी जीव और तदितर बाह्य कारणोंको देखते हैं तो उनमें कोई अन्तर नही रह जाता है । केवल बाह्य व्याप्ति के आधार पर कालप्रत्यासत्तिवश उक्त