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जैनतत्त्वमीमांसा जह पुग्गलदब्वाणं बहुप्ययारेहि खंधणिप्पत्ती ।
अकदा परेहिं विट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ॥६६॥ जिस प्रकार पुद्गल द्रव्योंकी अनेक प्रकारसे स्कन्धोंकी उत्पत्ति परके द्वारा किये बिना होती हुई दिखलाई देती है उसी प्रकार कर्मोकी विविधता परके द्वारा नहीं की गई जानो ॥६६॥
यहाँ पर प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य अन्यके द्वारा नहीं किये जाने पर स्वयं प्रति समय अपने कार्योंका कर्ता कैसे है यह पुद्गल स्कन्धोंका उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। पुद्गल स्कन्धोके द्वयणुकसे लेकर महस्कन्ध तक नाना भेद है । उनमेंसे शून्य वर्गणाओको छोड़कर वे सब सत्स्वरूप हैं। उनमें ऐसी आहारवर्गणाएँ भी हैं जिनसे तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंकी संरचना होती है। मनोवर्गणाएँ भी हैं जिनसे विविध प्रकारके मनोंकी संरचना होती है। भाषावर्गणाएँ भी है जिनसे तत, वितत आदि ध्वनियोंकी संरचना होती है। तेजसवर्गणाएं भी हैं जिनसे निःसरण और अनिःसरण स्वभाव तथा प्रशस्त और अप्रशस्त तेजस शरीरोंकी संरचना होती है। कार्मणवर्गणाएँ भी है जिनसे ज्ञानावरणादि विविध प्रकारके आठ कर्मोंकी संरचना होती है। ये पांचों संसारी जीवों से सम्बद्ध होने योग्य वर्गणाएँ है । प्रश्न है कि इन्हे ऐसी कौन बनाता है ओर इनमेसे आहारादि पाँच वर्गणाओंमें संसारी जीवोंके साथ सम्बद्ध होनेकी पात्रता कौन पैदा करता है। क्या वे स्वभावसे संसारी जीवोसे सम्बद्ध होनेकी पात्रता युक्त बनती है या संसारी जीव उन्हें अपने मोह, राग, द्वष आदिसे वैसा बना लेता है। साथ ही यह विभाग कौन करता है कि इतने परमाणुओसे लेकर इतने परमाणुओ तकके स्कन्ध आहारवर्गणा योग्य होंगे आदि तथा एक प्रकारको वर्गणाओसे दूसरे प्रकारको वर्गणाओंके मध्य इतना अन्तर रहेगा। यदि कहो कि ये वर्गणाएँ स्वयं ही बनती और विछड़ती रहती है तो संसारके सब कार्य स्वयंकृत मान लेनेमे आपत्ति ही क्या है। आगमका भी यही आशय है। आचार्य कुन्द-कुन्ददेवने इसी स्वयंकृत नियमको ध्यानमें रखकर यह निर्देश किया है कि जिस प्रकार सब स्कन्धोंकी उत्पत्ति परसे न होकर स्वयं होती है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्पत्ति भी स्वगंकृत जाननी चाहिये । इतने कथनसे यह भी फलित होता है कि ससारी जीव अपने रागादि परिणामोंको स्वयं करते हैं और एक क्षेत्रावगाहरूपसे वहाँ स्थित पुद्गल कार्मणवर्गणाएँ स्वय कर्मरूप परिणमती रहती है। इससे आगममें