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निश्चयउपादान-मीमांसा यही कारण है कि हमने परमार्थसे निश्चय उपादानको कार्यका नियामक कहा है, फिर भी व्यवहारसे व्यवहार हेतुको कार्यका नियामक | माननेमें हमें कोई आपत्ति नहीं है । क्योंकि व्यवहार निश्चयकी सिद्धिका व्यवहार हेतु है ऐसा मागम वचन है । ४. उपादान-प्रागभाव विचार
कार्य द्रव्यसे अव्यवहित पूर्ववर्ती द्रव्यको प्रागभाव कहते है और प्रागभावका अभाव ही कार्य द्रव्य कहलाता है। यहाँ जो प्रागभावका लक्षण दिया है वही निश्चय उपादानका लक्षण है, इसलिये आत्ममीमांसा कारिका १० में जो यह आपत्ति दी गई है कि प्रागभाव न मानने पर कार्य द्रव्य अनादि हो जायगा सो यही आपत्ति निश्चय उपादानके नही स्वीकार करने पर भी प्राप्त होती है। प्रागभावका उक्त सुनिश्चित लक्षण किस दृष्टिसे स्वीकार किया गया है इसका विस्तारसे विवेचन करते हुए आचार्य विद्यानन्दने अपनी सुप्रसिद्ध अष्टसहस्री टीकामें जो कुछ भी लिखा है यह उन्हीके शब्दोंमे पढ़िये
ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि प्रागभावस्तावान् कार्यस्योपादानपरिणाम एव पूर्वानन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्य-सद्भावप्रसगः, प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् । 'कायोत्पाद. क्षयो हेतोः' इति वक्ष्यमोणत्वान् । प्रागभावतत्प्रागभावादेस्तु पूर्व-पूर्वपरिणामस्य मन्तत्यनादेविवक्षितकार्यरूपत्वाभावात् ।
यथार्थमे ऋजुसूत्रनयकी मुख्यतासे तो अव्यवहित पूर्ववर्ती उपादान परिणाम ही कार्यका प्रागभाव है। और प्रागभावके इस रूपसे स्वीकार करने पर पूर्वकी अनादि परिणाम सन्ततिमें कार्यके सद्भावका प्रसंग नही आता है, क्योंकि प्रागभावके विनाशमें कार्य रूपता स्वीकार की गई है। 'कार्यका उत्पाद ही क्षय है, क्योंकि इन दोनोंका हेतु एक है ऐसा आगे शास्त्रकार स्वयं कहनेवाले है। प्रागभाव, उसका प्रागभाव इस रूपसे पूर्वतत्पूर्व परिणामरूप सन्ततिके अनादि रूपसे विवक्षित होनेके कारण उसमें विवक्षित कार्यपनेका अभाव है । पृ० १०० ।
इससे एक तो यह निश्चित हो जाता है कि अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य नियत कार्यका ही उपादान होता है। दूसरे उक्त कथनसे यह भी निश्चित हो जाता है कि इससे पूर्व क्रमसे वस्तु जिस रूपमे अवस्थित
१ कार्यात्प्रागनन्तरपर्यायः तस्य प्रागभावः । तस्यैव प्रध्वंसः कार्य घटादि । पृ. ९७।