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निश्चयउपाबान-मीमांसा
(छ) उपसर्ग केवली या अन्तःकृतकवली जीवोंके ऊपर तपस्याके समय घोर उपसर्ग होनेपर भी भुज्यमान आयु अनपवयं ही क्यों रही आती है। घोर उपसर्गसे उसका छेद हो जाय और ये जोव अकालमें ही मुक्तिके पात्र हों जायें, ऐसा क्यों नहीं होता ? विचार कीजिये।
(ज) पूर्व भवमें जा जीव कर्म भूमिज मनुष्य और तिर्यचकी आयुका निकाचित, निधत्ति और उपशम करण रूप आयुबन्ध करके कर्म भूमिज मनुष्य और तिर्यच हुए हैं । विष, शस्त्रादिके द्वारा उनका अकाल मरण क्यों नहीं होता? विचार कीजिये।।
(घ) धवला पुस्तक ६ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चूलिका सूत्र संख्या २४ में देव और नारकियों सम्बन्धी और २८ में मनुष्यों और तिर्यञ्चों सम्बन्धी आयुबन्ध होनेपर भुज्यमान आयुका छेद नहीं होता। मुज्यमान आयुमेंसे उतनी आयु शेष रहते हुए यदि दूसरोंके द्वारा विष-शस्त्रादिका प्रयोग भी किया जाता है तो भी उनका मरण नहीं होता। किन्तु शेष आयुका भोग हो लेता हैं तभी उन देव-नारकियों और मनुष्य-तिर्यश्चोंका मरण होता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्यका नियामक निश्चय उपादान ही होता है, क्योंकि उसी समय ही ये भीतरसे मरणके सम्मुख होते है, मरणके स्बकालको छोड़कर अन्य कालमें नहीं।
शंका-देव और नारकियोंका तो किसी भी हालतमें मरण नहीं होता, फिर इस नियममें उनको क्यों सम्मिलित किया गया है ? __ समाधान-आगममें उनकी आयुको जो अनपवर्त्य बतलाया गया है। सो इससे मात्र यही सिद्ध होता है कि उनका अन्तिम आयुबन्ध निकाचित, नित्ति, उपशम करणरूप होता है, ऐसी योग्यतासे रहित उनका आयु बन्ध नहीं होता है। सामान्यतः यही नियम भोगभूमि मनुष्य और तिर्यचोंपर तथा चरम शरीरी जीवोंपर भी लागू होता है। इनके अतिरिक्त अन्य सब जीव इस नियमके अपवाद हैं। 'ततोऽन्येऽपवायुषो गम्यन्ते' (त. श्लो. २-५३). इस वचनसे भी यही सिद्ध होता है।
___ शका-जिन जीवोंपर यह नियम लागू नहीं होता, उनका अकालमरण माननेमें तो आपत्ति नहीं, अन्यथा खङ्गप्रहारादिसे होने वाला मरण नहीं बनेगा तथा आयुर्वेद आदिके द्वारा जीवन रक्षाके उपाय करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जायगी।।
समाधान-प्रत्येक कार्यमें बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रता होती है यह द्रव्यगत स्वभाव है (स्वयंभूस्रोत्र ५९) इस नियमके अनुसार