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निश्चयउपादान -मीमांसा
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इसलिए अन्वयी द्रव्यसे रहित वह किसी भी कार्यको नहीं साध सकता ||२२७-२२८||
इसलिए स्वामी कार्तिकेयने फलितार्थरूप में उपादान कारण और कार्यका जो लक्षण किया है वह इस प्रकार है:
पुत्रपरिणामजत्तं कारणभावेण बट्टदे दव्वं ।
उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे नियमा || २३०||
अनन्तर पूर्व परिणामसे युक्त द्रव्य कारणरूपसे प्रवर्तित होता है और अनन्तर उत्तर परिणामसे युक्त वही द्रव्य नियमसे कार्य होता है || २३०|| स्वामी विद्यानन्दने भी उपादानकारण और कार्यका क्या स्वरूप है इसका बहुत ही संक्षेपमें समाधान कर दिया है । वे श्लोक ५८ की सहस्त्री टीकामे कहते हैं:
उपादानस्य पूर्वाकारण क्षय कार्योत्पाद एव, हेतोनियमात् ।
उपादानका पूर्वाकारसे क्षय कार्यका उत्पाद ही है, क्योंकि ये दोनो / एक हेतुसे होते हैं ऐसा नियम है ।
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो अनन्तर पूर्व पर्यायविशिष्ट द्रव्य है उसकी उपादान संज्ञा है और जो अनन्तर उत्तर पर्यायविशिष्ट द्रव्य है उसकी कार्य संज्ञा है । उपादान - उपादेयका यह व्यवहार अनादि कालसे इसी प्रकार चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा ।
इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए हम पहले एक उदाहरण घट कार्य का दे आये हैं। उससे स्पष्ठ है कि खानसे प्राप्त हुई मिट्टीसे यदि घट बनेगा तो उसे क्रमसे उन पर्यायोंमेंसे जाना होगा जिनका निर्देश हम पूर्वमे कर आये हैं । व्यवहारनयसे कितना ही चतुर व्यवहार हेतुरूपसे उपस्थित कुम्हार क्यो न हो वह खानकी मिट्टीसे घट पर्याय तककी निष्पत्तिका जो क्रम है उसमें परिवर्तन नही कर सकता । खानसे लाई गई मिट्टी जैसे-जैसे एक-एक पर्याय रूपसे निष्पन्न होती जाती है तदनुकूल कुम्हारके हस्त पादादिका क्रिया व्यापार भी बदलता जाता है और उसी क्रमसे मिट्टीके आश्रित विकल्पात्मक उपयोगमें भी परिवर्तन होता जाता है । अन्तमें मिट्टीमेंसे घट पर्यायकी निष्पत्ति इसी क्रमसे होती है और जब मिट्टी से घट पर्यायकी निष्पत्ति हो जाती है तो कुम्हारका व्यवहार से तदाश्रित योग- उपयोगरूप क्रिया व्यापार भी रुक जाता है । एक द्रव्याश्रित उपादान - उपादेयसम्बन्धके साथ बाह्य द्रव्याश्रित निमित्त