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जैनतत्त्वमीमांसा जो अपने स्वरूपको छोड़ता ही है केवल वह (पर्याय) और जो अपने स्वरूपको सर्वथा नहीं छोड़ता केवल वह (सामान्य) अर्थ (कार्य) का उपादान नहीं होता । जैसे क्षणिक और शाश्वत ।
यद्यपि सर्वथा क्षणिक और सर्वथा शाश्वत कोई पदार्थ नहीं है। परन्तु जो लोग पदार्थको सर्वथा क्षणिक मानते हैं उनके यहाँ जैसे सर्वथा क्षणिक पदार्थ कार्यका उपादान नही हो सकता और जो लोग पदार्थको सर्वथा शाश्वत मानते है उनके यहाँ जैसे सर्बथा शाश्वत पदार्थ कार्यका उपादान नहीं हो सकता उसी प्रकार द्रव्यका केवल सामान्य अंश कार्य का उपादान नहीं होता और न केवल विशेष अंश कार्यका उपादान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। - इस विषयको और स्पष्ट करते हुए स्वामी कार्तिकेय स्वरचित द्वादशानुप्रक्षामें कहते है:
जं वत्थु अणेयतं त चिय कज्जं करेई णियमेण ।
बहुधम्मजुदं अत्यं कज्जकर दीसए लोए ॥२२५।। जो वस्तु अनेकान्तस्वरूप है वही नियमसे कार्यकारी होती है, क्योकि बहुत धर्मोंसे युक्त अर्थ ही लोकमें कार्यकारी देखा जाता है ॥२२५।।
एयतं पुण दव्वं कज्ज ण करेदि लेसमित्त पि ।
जं पुण ण कीरदि कज्ज तं वुच्चदि केरिस दव्वं ॥२२६।। किन्तु एकान्तरूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य करनेमे समर्थ नही होता और जब वह कार्य नही कर सकता तो उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है, अर्थात् नही कहा जा सकता ॥२२६।। ___ आगे एकान्तस्वरूप द्रव्य या पर्याय कार्यकारी कैसे नही होता इसका समर्थन करते हुए वे कहते है:
परिणामेण विहीणं णिच्चं दव्वं विणस्सदे णेव । णो उप्पज्जदि य सदा एवं कज्जं कहं कुणइ ॥२२७।। पज्जयमित्त तच्चं खणे खणे वि अण्णण्ण ।
अण्णइदव्वविहीणं ण य कज्जं कि पि साहेदि ॥२२८।। अपने परिणामसे हीन नित्य द्रव्य सर्वदा न तो विनाशको ही प्राप्त होता है और न उत्पन्न ही होता है, इसलिए वह कार्यको कैसे कर सकता है। तथा पर्यायमात्र तत्त्व क्षण क्षणमें अन्य-अन्य होता रहता है,