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जैतत्त्वमीमांसा
होता है । इस अपेक्षा जीव शुद्ध कहा जाता है । इसीकी स्वसापेक्ष या परनिरपेक्ष परिणाम संज्ञा है ।
इस तथ्यको स्पष्टरूपसे समझनेके लिये समयसारका यह सूत्र वचन भी दृष्टव्य है
सुद्ध तु विजागंतो सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो । जाणतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहइ || १६८ ।।
जीवको शुद्ध रूपसे - परनिरपेक्ष अकेले एकरूपसे अनुभव करनेवाला जीव शुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है । तथा जीवको अशुद्धरूपसे परसापेक्ष संयुक्तरूपसे अनुभवनेवाला जीव संसारी रूपसे अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है ।
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इस प्रकार निश्चित होता है कि जीव और पुद्गल द्रव्यकी केवल स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय ये दो ही पर्यायें होती हैं । तथा धर्मादि अन्य चार द्रव्योंकी एकमात्र स्वभाव पर्याय ही होती है । उसीको सर्वार्थसिद्धि आदि परमागममें उत्पादकी अपेक्षा स्वप्रत्यय उत्पाद कहा गया है । यह षट्गुणी हाति-वृद्धिरूप स्वप्रत्यय उत्पाद अकेले अगुरुलघु गुणका ही न होकर सभी गुणोंका होता है। वहाँ 'अनन्ताना अगुरुलघुगुणानां' का अर्थ अनन्त अविभागप्रतिच्छेद है, न कि अगुरुलघुगुणके अनन्त अविभाग परिच्छेदरूप अर्थ विवक्षित है । वहाँ धर्मादिक तीन द्रव्योंका प्रकरण है । इसलिये उनकी स्वप्रत्यय स्वभाव पर्याय कैसे होती है यह समझाया गया है। साथ ही उस पर्याय पर आश्रय निमित्तरूप व्यवहार कैसे घटित होता है यह भी वहाँ स्पष्ट किया गया है। इससे स्पष्ट है कि इस या इसी प्रकारके दूसरे आगमिक आधारपर जो स्वभाव पर्यायके स्वप्रत्यय या परनिरपेक्ष स्वभाव पर्याय और स्व-परप्रत्यय स्वभाव पर्याय ऐसे दो भेद करते हैं उनकी वैसी चेष्टा आगम विरुद्ध है । आशय यह है कि सभी स्वभाव पर्यायों में चाहे वे अगुरुलघुगुणकी ही क्यों न हों व्यवहारसे आश्रय निमित्त अवश्य होते हैं, उनके कर्तानिमित्त और करणनिमित्त नहीं होते, इसीलिये उनकी परनिरपेक्ष या स्वसापेक्ष संज्ञा है । साथ ही उक्त कथनसे यह भी समझ लेना चाहिये कि जो जीव स्वभाव सन्मुख या स्वभावलीन होता है उसकी शुद्ध संज्ञा है और जो जीव स्वभावको गौण कर या उसको न समझकर परमें राग-द्वेष मोह करता है उसकी अशुद्ध संज्ञा है। इसी आधारपर प्रत्येक जीव क्रमसे मुक्त और संसारी बनता है। इस दृष्टिसे किस निश्चय उपादानकी भूमिका