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बाह्यकारणमीमांसा
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नहीं जाता, क्योंकि उसके होने पर ही आत्मा सम्यग्दर्शन पर्यायरूपसे
परिणमन करता है, इसलिये अहेय है । परन्तु सम्यक्त्व नामक कर्म पुद्गल हेय है, क्योंकि उसके बिना ही क्षायिक सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है । (३) चौथे आत्माका सम्यग्दर्शन परिणाम प्रधान है, क्योंकि भीतर उसके होनेपर बाह्य सम्यक्त्व नामक द्रव्य कर्म बाह्य निमित्तमात्र है, अतः अप्रधान है । (४) पांचवें आत्माका परिणाम सम्यग्दर्शन प्रत्यासत्तिवश मोक्षका कारण है, क्योंकि उसकी तादात्म्यभावसे उत्पत्ति होती है । किन्तु सम्यक्त्व नामक द्रव्यकर्म विप्रकृष्टतर है, वह तादात्म्यरूपसे परिणमन नहीं करता । इसलिये अहेय होनेसे, प्रधान होनेसे और प्रत्यासन्न होनेसे सम्यग्दर्शन नामक आत्मपरिणाम ही मोक्षका कारण होना युक्त है, सम्यक्त्व नामक द्रव्यकर्म नहीं ।
७. पर्यायोंकी द्विविधता
परमागममें दो प्रकारकी ही पर्यायें स्वीकार की गई हैं, स्वसापेक्ष स्वभाव पर्याय, स्व-परसापेक्ष स्वभाव पर्याय और स्व-परसापेक्ष विभाव पर्याय इस तरह तीन प्रकारकी नही । वस्तुतः स्वसापेक्ष स्वभाव पर्याय से स्व-परसापेक्ष स्वभाव पर्याय पृथक नहीं है. दोनों एक ही हैं, क्योंकि जितनी भी स्वभाव पर्यायें होती हैं वे स्वके लक्ष्यसे अपने परिणाम द्वारा तन्मय होने पर ही उत्पन्न होती है, इसलिये उन्हें आगम में परनिरपेक्ष या स्वसापेक्ष ही स्वीकार किया गया है । अनन्तर पूर्व दिये गये तत्त्वार्थ भाष्यके उक्त वचनसे ही इसकी पुष्टि हो जाती है। इस विषयमें प्रवचन सारका यह सूत्र वचन भी दृष्टव्य है
परिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणियमण्णेसु । परिणामी णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।। १८१ ॥
अन्य द्रव्यको लक्ष्यकर जो शुभ परिणाम होता है उसका नाम पुण्य है और अशुभ परिणामका नाम पाप है । किन्तु जो परिणाम अन्यको लक्ष्य कर नहीं होता उसे परमागममें दुःखके क्षयका कारण कहा गया है || १८१||
परद्रव्य प्रवृत्त शुभाशुभका नाम पुण्य-पाप है, ये दोनों जीवके अशुद्ध परिणाम हैं । परद्रव्य प्रवृत्तपनेकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं है। इन्हीं परिणामोंका नाम स्व- परसापेक्ष पर्याय है । इस भूमिकामें रहनेवाला जीव भी अशुद्ध कहा जाता है। तथा स्वद्रव्य प्रवृत्त परिणामका नाम
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