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६४ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार प्यकारी न हो-प्राप्यकारी हो तो उसे स्वयंमें लगे अंजनको देख लेना चाहिए । दूसरे, स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी तरह वह समीपवर्ती वृक्षको शाखा और दूरवर्ती चन्द्रमाको एक साथ नहीं देख सकती । तोसरे, चक्षु अभ्रक, कांच और स्फटिक आदिसे आच्छादित पदार्थोंको भी देख लेती है, जब कि प्राप्यकारी स्पर्शनादि इन्द्रियां उन्हें नहीं जान पातीं। चौथे, यह आवश्यक नहीं कि जो कारण हो वह पदार्थसे संयुक्त होकर ही अपना काम करे। चुम्बक दूरसे ही लोहेको खींच लेता है। पांचवें, चक्षुको प्राप्यकारी माननेपर पदार्थ में दूर और निकटका व्यवहार नहीं हो सकता। इसी तरह संशय और विपर्यय ज्ञान भी नहीं हो सकते। इन सब कारणोंसे जैन दर्शनमें चक्षुको अप्राप्यकारी माना गया है।
पूज्यापादने' ज्ञानको प्रमाण माननेपर सन्निकर्ष और इन्द्रियप्रमाणवादियों द्वारा उठायी गयी आपत्तिका भी परिहार किया है । आपत्तिकारका कहना है कि ज्ञानको प्रमाण स्वीकार करनेपर फलका अभाव हो जाएगा, क्योंकि प्रमाणका फल 'अर्थज्ञान' है और उसे प्रमाण मान लेनेपर उसका कोई फल शेप नहीं रहता । सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण स्वीकार करनेपर तो स्पष्टतया उसका 'अर्थज्ञान' फल बन जाता है ? इस आपत्तिका परिहार करते हुए पूज्यपाद कहते हैं कि सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेपर उसके फलको भी सन्निकर्षकी तरह दोमें रहनेवाला मानना पड़ेगा, फलतः घट, पट आदि अचेतन पदार्थों में भी ज्ञानके सद्भावका प्रसङ्ग आयेगा। यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञानका समवाय चेतन आत्मामें है, घटादि अचेतन पदार्थों नहीं, क्योंकि आत्माको ज्ञस्वभाव न माननेसे अन्य अचेतनोंको तरह उसमें भी ज्ञानका समवाय सम्भव नहीं है और आत्माको ज्ञस्वभाव स्वीकार करनेपर सिद्धान्त-विरोध आता है ।
ज्ञानको प्रमाण माननेपर फलके अभावका प्रसंग उपस्थित नहीं होता, क्योंकि पदार्थका ज्ञान होनेके उपरान्त प्रोति देखी जाती है। यह प्रीति ही उसका फल है। अथवा उपेक्षा या अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका फल है। राग या द्वेषका न होना उपेक्षा है और अन्धकारतुल्य अज्ञानका दूर हो जाना अज्ञाननाश है।
१. स० सि० १११०, पृष्ठ ९७ । २. ननु चोवतं शाने प्रमाणे सति फलाभाव इति, नैष दोषः, अर्थाधिगमे प्रीतिदर्शनात् ।
शस्वभावस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य करणालम्बनादर्थनिश्चये प्रोतिरुपजायते। सा फलमित्युच्यते । उपेक्षा अशाननाशो वा फलम् । रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा । अन्धकारकल्पाशाननाशो था फलमित्युच्यते ।
-वही, १-१०, पृष्ठ ९७, १८ । ३. (क ) उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानपोः । पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥
-समन्तभद्र आप्तमी० का० १०२,। ( ख ) अज्ञाननिदृत्तिः हानोपादानोपेक्षाश्च फलम् । -माणिक्यनन्दि, परीक्षामु० ५.१ ।