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६२ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार धर्मकीति' ने 'अविसंवादि' पद और जोड़कर दिङनागके प्रमाणलक्षणको प्रायः परिष्कृत किया है। तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने सारूप्य-तदाकारता और योग्यताको प्रमाणका लक्षण बतलाया है, जो एक प्रकारसे दिड्नाग और धर्मकोति के प्रमाण-सामान्यलक्षणका ही फलितार्थ है। इस तरह बौद्ध-दर्शनमें स्वसंवेदी अज्ञातार्थज्ञापक अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण स्वीकार किया है। (घ ) जैन चिन्तकों द्वारा प्रमाणस्वरूप-विमर्श :
जैन परम्परामें प्रमाणका क्या लक्षण है ? आरम्भमें उसका क्या रूप रहा और उत्तरकाल में उसका किस तरह विकास हुआ ? इत्यादि प्रश्नोंपर यहाँ विचार प्रस्तुत है। १. समन्तभद्र और मिद्धसेन : ___ सर्वप्रथम स्वामा समन्तभद्रने प्रमाणका लक्षण निबद्ध किया है, जो इस प्रकार है
स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् । जो ज्ञान अपना और परका अवभास कराये वह प्रमाण है। जो केवल अपना या केवल परका अवभास कराता है वह ज्ञान प्रमाणकोटिमें सम्मिलित नहीं है। प्रमाणकोटिम वही ज्ञान समाविष्ट हो सकता है जो अपनेको जाननेके साथ परको और परको जाननेक साथ अपनेको भी अवभासित करता है। और तभी उसमें सम्पूर्णता आती है ।
सिद्धसेनने समन्तभद्र के उक्त लक्षणको अपनाते हुए उसमें एक विशेषण और दिया है । वह है 'बाधविवर्जितम् ।
यद्यपि 'स्वरूपस्य स्वतो गतेः', 'स्वरूपाधिगतेः परम्' आदि प्रतिपादनों द्वारा विज्ञानाद्वैतवादो बौद्ध प्रमाणको स्वसंवेदो स्वीकार करते हैं तथा 'अज्ञातार्थ
१. प्रमाणमविसवादि शानम्, अक्रियास्थिातः ।
अविसवादनं....................... ॥
-धर्मकोति प्रमाणवा० २-१, पृष्ठ २९ । २. विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।
-शान्तरक्षित, तत्त्वसं० का० १३४४ । ३. स्वय० स्तो० का० ६३ । ४. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवजितम् ।
-न्यायाव०, का० १ । ५. धर्मकीति, प्रमाणवा० २१४ । ६. वही, २।५।