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४४ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार
इस प्रकार अनुमान-भेदोंके विषयमें भारतीय ताकिकोंकी विभिन्न मान्यताएं तर्कग्रन्थोंमें उपलब्ध होती है। तथ्य यह कि कणाद जहां साधनभेदसे अनुमानभेदका निरूपण करते हैं वहाँ न्यायसूत्र आदिमें विषयभेद तथा प्रशस्तपादभाष्य आदिमें प्रतिपत्ताभेदसे अनुमान-भेदका प्रतिपादन ज्ञात होता है । साधन अनेक हो सकते हैं, जैसा कि प्रशस्तपादने' कहा है, अतः अनुमानके भेदोंकी संख्या पाँचसे अधिक भी हो सकती है। न्यायसूत्रकार आदिकी दृष्टि में चूंकि अनुमेय या तो कार्य होगा, या कारण या अकार्यकारण । अतः अनुमेयके वैविध्यसे अनुमान त्रिविध है। प्रशस्तपाद द्विविध प्रतिपत्ताओंकी द्विविध प्रतिपत्तियोंकी दृष्टिसे अनुमानके स्वार्थ और परार्थ दो ही भेद मानते हैं, जो बुद्धिको लगता है, क्योंकि अनुमान एक प्रकारको प्रतिपत्ति है और वह स्व तथा पर दोके द्वारा की जाती है। सम्भवतः इसीसे उत्तरकालमें अनुमानका स्वार्थ-परार्थद्वैविध्य सर्वाधिक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुआ। अनुमानावयव :
अनुमानके तीन उपादान है,२ जिनसे वह निष्पन्न होता है-१. साधन, २. साध्य और ३. धर्मी । अथवा १. पक्ष और २. हेतु ये दो उसके अंग है, क्योंकि साध्यधर्म विशिष्ट धर्मीको पक्ष कहा गया है; अतः पक्षको कहनेसे धर्म और धर्मी दोनोंका ग्रहण हो जाता है । साधन गमकरूपसे उपादान है, साध्य गम्यरूपसे और धी साध्यधर्मके आधाररूपसे, क्योंकि किसी आधार-विशेषमें साध्यकी सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है। सच यह है कि केवल धर्म की सिद्धि करना अनुमानका ध्येय नहीं है, क्योंकि वह व्याप्ति-निश्चयकालमें ही अवगत हो जाता और न केवल धर्मोकी सिद्धि अनुमानके लिए अपेक्षित है, क्योंकि वह सिद्ध रहता है। किन्तु 'पर्वत अग्निवाला है' इस प्रकार पर्वतमें रहने वाली अग्निका ज्ञान करना अनुमानका लक्ष्य है । अतः धर्मी भी साध्यधर्म के आधार रूपसे अनुमानका अंग है । इस तरह साधन, साध्य और धर्मी ये तीन अथवा पक्ष और हेतु ये दो स्वानुमान तथा परार्थानुमान दोनोंके अंग हैं। कुछ अनुमान ऐसे भी होते हैं जहाँ धर्मी नहीं होता। जैसे-सोमवारसे मंगलका अनुमान आदि । ऐसे अनुमानोंमें साधन और साध्य दो हो अंग हैं ।
उपर्युक्त अंग स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानुमानके कहे गये हैं। किन्तु वचनप्रयोग द्वारा प्रतिवादियों या प्रतिपाद्योंको अभिधेय-प्रतिपत्ति कराना जब अभिप्रेत होता है तब वह वचनप्रयोग परार्थानुमान-वाक्यके नामसे अभिहित
१. प्रश० भा० पृ० १०४ । २. धर्मभूषण, न्यायदी० तु. प्रकाश पृ० ७२ । ३. वही, पृष्ठ ७२-७३ ।