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३६ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार उन तीन रूपोंमें भी पक्ष और पक्षधर्मता शब्दोंका प्रयोग नहीं है। हां, 'अनुमेय सम्बद्धलिंग' शब्द अवश्य पक्षधर्मका बोधक है। पर 'पक्षधर्म' शब्द स्वयं उपलब्ध नहीं है।
पक्ष और पक्षधर्मता शब्दोंका स्पष्ट प्रयोग सर्वप्रथम सम्भवतः बौद्ध ताकिक शंकरस्वामोके न्यायप्रवेशमें हुआ है। इसमें पक्ष, सपक्ष, विपक्ष, पक्षवचन, पक्षधर्म, पक्षधर्मवचन और पक्षधर्मत्व ये सभी शब्द प्रयुक्त हुए हैं। साथमैं उनका स्वरूप-विवेचन भी किया है। जो धर्मीके रूपमें प्रसिद्ध है वह पक्ष है। 'शब्द अनित्य है' ऐसा प्रयोग पक्षवचन है। क्योंकि वह कृतक है' ऐसा वचन पक्षधर्म (हेतु। वचन है। 'जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, यथा घटादि' इस प्रकारका वचन सपक्षानुगम (सपक्षसत्त्व) वचन है। 'जो नित्य होता है वह अकृतक देखा गया है, यथा आकाश' यह व्यतिरेक (विपक्षासत्त्व) वचन है । इस प्रकार हेतुको त्रिरूप प्रतिपादन करके उसके तीनों रूपोंका भी स्पष्टीकरण किया है । वे तीन रूप हैं -१ पक्षधर्मत्व, २ सपक्षसत्त्व और ३ विपक्षासत्त्व । ध्यान रहे, यहाँ 'पक्षधर्मत्व' पक्ष धर्मताके लिए ही आया है। प्रशस्तपादने जिस तथ्यको 'अनु मेयसम्बद्धत्व' शब्दसे प्रकट किया है उसे न्यायप्रवेशकारने 'पक्षधर्मत्व' शब्द द्वारा बतलाया है। तात्पर्य यह कि प्रशस्तपादके मतसे हेतुके तीन रूपोंमें परिगणित प्रथम रूप 'अनमेयसम्बद्धत्व' है और न्यायप्रवेशके अनुसार 'पक्षधर्मत्त्व' । दोनोंमें केवल शब्दभेद है, अर्थ भेद नहीं। उत्तरकालमें तो प्रायः सभी भारतीय ताकिकोंक द्वारा तीन रूपों अथवा पाँच रूपों के अन्तर्गत पक्षधर्मत्वका बोधक पक्षधर्मत्व या पक्षधर्मता पद ही अभिप्रेत हुआ है। उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन", गंगेश, केशव प्रभृति वैदिक नैयायिकों तथा धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर', अर्चट आदि बौद्ध ताकिकोंने अपने ग्रन्थोंमें उसका प्रतिपादन किया
१. प्र० मा, पृष्ठ १०० । २. पक्षः प्रसिद्धो धर्मा...। हेतुस्त्रिरूपः । किं पुनस्त्ररूप्यम् ? पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्वं विपक्षे
चासत्वमिति ।...तद्यथा । अनित्यः शब्द इति पक्षवचनम् । कृतकत्वादिति पक्षधर्मवचनम् । यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टं यथा घटादिरिरात सपक्षानुगमवचनम् । यन्नित्यं तदकृतक दृष्टं यथाऽऽकाशमिति व्यतिरेकवचनम् ।
--शंकरस्वामी, न्यायप्र० पृष्ठ १-२ । ३. उद्यातकर, न्यायबा० १३५, पृष्ठ १२६, १३१ । ४. वाचस्पति, न्यायवा० ता० टी० १०१५, पृष्ठ १७१ । ५. उदयन, किरणा० पृष्ठ २६०, २६४ । ६. त. चि० जागदी टो० पृ० १३, ७१ । ७. केशव मिश्र. तर्कभा० अनु० निरू० पृष्ठ ८८, ८६ । ८-६. धर्मकोति, न्यायबि०, द्वि० परि० पृष्ठ २२ । १०. अर्चट, हेतुवि० टो० पृष्ठ २४ ।