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१० : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार
नियुक्ति में अनुमानवाक्यके दो, तीन, पाँच, दश और दश इस प्रकार पांच तरहसे अवयवोंकी चर्चा की है। प्रतीत होता है कि अवयवोंकी यह विभिन्न संख्या विभिन्न प्रतिपाद्योंको' अपेक्षा बतलायी है ।
ध्यातव्य है कि वात्स्यायन द्वारा समालोचित तथा युक्तिदीपिकाकार द्वारा विवेचित जिज्ञासादि दशावयत्र भद्रबाहुके दशावयवोंसे भिन्न हैं ।
उल्लेखनीय है कि भद्रबाहुने मात्र उदाहरणसे भी साध्य-सिद्धि होनेकी बात कही है जो किसी प्राचीन परम्पराका प्रदर्शक है ।२
इस प्रकार जैनागमोंमें हमें अनुमान-मीमांसाके पुष्कल बीज उपलब्ध होते हैं । यह सही है कि उनका प्रतिपादन केवल निःश्रेयसाधिगम और उसमें उपयोगी तत्त्वोंके ज्ञान एवं व्यवस्थाके लिए ही किया गया है। यही कारण है कि उनमें न्यायदर्शनको तरह बाद, जल्प और वितण्डापूर्वक प्रवृत्त कथाओं, जातियों, निग्रहस्थानों, छलों तथा हेत्वाभासोंका कोई उल्लेख नहीं है । ( च ) अनुमानका मूल-रूप
आगमोत्तर कालमें जब ज्ञानमीमांसा और प्रमाणमोमांसाका विकास आरम्भ हुआ ता उनके विकास के साथ अनुमानका भो विकास होता गया । आगम-वणित मति, श्रुत आदि पाँच ज्ञानोंको प्रमाण कहने और उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दो भेदोंमें विभक करने वाले सर्वप्रथम आचार्य गृद्धपिच्छ हैं। उन्होंने शास्त्र और लोकम व्यवहृत स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिभिनाध इन चार ज्ञानोंको भी एक सूत्र द्वारा पराक्ष-प्रमाणके अन्तगत समाविष्ट करके प्रमाणशास्त्रके विकासका सूत्रपात किया तथा उन्हें परोक्ष प्रमाणके आद्य प्रकार मतिज्ञानका पर्याय प्रतिपादन किया। इन पर्यायोंमे अभिनिबोधका जिस क्रमसे और जिस स्थान पर निर्देश हुआ है उससे ज्ञात होता है कि सूत्रकारने उसे अनुमानके अर्थ में प्रयुक्त किया है। स्पष्ट है कि पूर्व-पूर्वको प्रमाण और उत्तर-उत्तरको प्रमाण-फल
१. प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ।
-प्र० पररा० पृष्ठ ७२ में उद्धृत कुमारनन्दिका वाक्य । २. श्रीदलसुखभाई मालवणिया, आगमयुगका जैन दर्शन, प्रमाणखण्ड, पृ० १५७ । ३ मतिश्रुतावधिमनःपययकेवलानि शानम् ; तत्प्रमाणे; आये पराक्षम् ; प्रत्यक्षमन्यत्
-तत्त्वा० सू० ११९, १०, ११, १२ । ४. मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम् ।
-वही, १।१३.। ५. गृद्धपिच्छ, त० सू० १६१३ ।