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द्वितीय परिच्छेद जैन-परम्परामें अनुमान-विकास सम्प्रति विचारणीय है कि जैन वाड्मयमें अनुमानका विकास किस प्रकार हुआ और आरम्भमें उसका क्या रूप था ? ( क ) षट्खण्डागममें हेतुवादका उल्लेख
जैन श्रुतका आलोडन करनेपर ज्ञात होता है कि षट्खण्डागममें श्रुतके पर्यायनामोंमें एक 'हेतुवाद'' नाम भी परिगणित है, जिसका व्याख्यान आचार्य वीरसेनने हेतुद्वारा तत्सम्बद्ध अन्य वस्तुका ज्ञान करना किया है और जिसपरसे उसे स्पष्टतया अनुमानार्थक माना जा सकता है, क्योंकि अनुमानका भी हेतुसे साध्यका ज्ञान करना अर्थ है । अतएव हेतुवादका व्याख्यान हेतुविद्या, तर्कशास्व, युक्तिशास्त्र और अनुमानशास्त्र किया जाता है । स्वामी समन्तभद्रने सम्भवतः ऐसे ही शास्त्रको 'युक्त्यनुशासन'२ कहा है और जिसे उन्होंने दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) और आगमसे अविरुद्ध अर्थका प्ररूपक बतलाया है। ( ख ) स्नानांगसूत्रमें हेतु-निरूपण
स्थानांगसूत्र' में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है और उसका प्रयोग प्रामाणसामान्य तथा अनुमानके प्रमुख अंग हेतु ( साधन ) दोनोंके अर्थ में हुआ है । प्रमाणसामान्यके अर्थ में उसका प्रयोग इस प्रकार है
१. हेदुवादो णयवादो पवरवादो मग्गवादो सुदवादो।
-भूतबली-पुष्पदन्त, षट्खण्डा० ५।५५१, सोलापुर संस्करण १९६५ । २. दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्स्यनुशासनं ते।।
-समन्तभद्र, युज्स्यनुशा० का० ४८; वीरसेवामन्दिर दिल्ली। ३. अथवा हेऊ चउन्विहे पन्नते तं जहा-पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ
चव्विहे पन्नते तं जहा-अत्यि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं पत्थि सो हेऊ, गत्यि तं अत्थि सो हेऊ, णत्यि तं णत्थि सो हेऊ ।
-स्थानांगसू० पृष्ठ ३०९-३१० । ४. हिनोति परिच्छिन्नत्त्यर्थमिति हेतुः।