________________
१४ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार उत्तरवर्ती प्रायः सभी व्याख्याकारोंने अपने व्याख्या-ग्रन्थों में उसे अपनाया है। नव्यनैयायिकोंने तो उसमें प्रभूत परिष्कार भी उपस्थित किये हैं, जिससे तर्कशास्त्रके क्षेत्रमें अनुमानने व्यापकता प्राप्त की है और नया मोड़ लिया है ।
न्यायवार्तिककारने गौतमोक्त पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन तीनों अनुमान-भेदोंकी व्याख्या करनेके अतिरिक्त अन्वयी, व्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तीन नये अनुमान-भेदोंकी भी सृष्टि की है, जो उनसे पूर्व न्यायपरम्परामें नहीं थे। 'विविधम्' मूत्रके इन्होंने कई व्याख्यान प्रस्तुत किये हैं । निश्चयतः उनका यह सव निरूपण उनकी मौलिक देन है। परवर्ती नैयायिकोंने उनके द्वारा रचित व्याख्याओंका ही स्पष्टीकरण किया है। __उद्योतकर हारा बौद्ध सन्दर्भमं की गयी हेतुलक्षणसमीक्षा भी महत्त्वकी है। बौद्ध" हेतुका लक्षण त्रिरूप मानते हैं । पर उद्योतकर न केवल उसकी ही आलोचना करते हैं, अपितु द्विलक्षणकी भी मीमांसा करते हैं। किन्तु सूत्रकारोक्त एवं भाष्यकार समर्थित द्विलक्षण, त्रिलक्षणके साथ चतुर्लक्षण और पंचलक्षण हेतु उन्हें इष्ट है। अन्वयव्यतिरेकोमें पंचलक्षण और केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकीमें चतुर्लक्षिण घटित होता है। यहाँ उद्योतकरकी विशेषता यह है कि वे न्यायभाष्यकारकी आलोचना करनेसे भी नहीं चूकते । वात्स्यायनने 'तथा वैध
ात्' इस वैधयं प्रयुक्त हेतुलक्षणका उदाहरण साधर्म्य प्रयुक्त हेतुलक्षणके उदाहरण 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' को ही प्रस्तुत किया है । इसे वे युक्तिसंगत न मानते
१. वाचस्पति, न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृष्ठ १६९ । तथा उदयन, ता० टी० परिशु०
११।५, पृष्ठ ७०७, । २. गंगेश उपाध्याय, तत्त्वचिन्तामणि, जागदीशी, १० १३, ७१ । विश्वनाथ, सिद्धान्तमु०
पृष्ठ ५० । आदि ३. न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ४६ । ४. वही, १११।५, पृष्ठ ४६-४६ । ५. न्यायप्रवेश, पृष्ठ १। ६. विलक्षणं च हेतुं बुवाणेन-अहेतुत्वमिति प्राप्तम् । तादृगविनाभाविधमोपदर्शनं
हेतुरित्यपरे तादृशा विना न भवतीत्यनेन द्वयं लभ्यते-'-न्यायवा० १।११३५,
पृ० १३१ । ७. च शब्दात् प्रत्यक्षागमाविरुद्धं चेत्येवं चतुलक्षणं पंचलक्षणमनुमानमिति ।
--वही, ११११५, पृष्ठ ४६ । ८. न्यायभा० ११११५, पृष्ठ ४९ । ६. न्यायसू० १।१।३५ । १०. एतत्तु न समंजसमिति पश्यामः प्रयागमात्रभेदात् । उदाहरणमात्रभेदाच्च । तस्मा
न्नेदं उदाहरणं न्याययमिति । उदाहरणं तु 'नेदं निरात्मक जावच्छरोरं अप्राणादिमत्वप्रसंगादिति ..'-न्यायवा० १६१।३५, पृष्ठ १२३ ।