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भनुमानामास-विमर्श : २४५
भेद करके बाधितविषयके प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधित, आगमबाधित और स्व. बचनबाधित इन चारको उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है तथा 'आदि,' शब्दसे और भी अकिंचित्कर भेदोंको स्वयं विचारनेका संकेत किया है । दृष्टान्ताभासोंके कथनका प्रकार उल्लेखनीय है । अदृष्टान्तके वचन और दृष्टान्तके अवचनको इन्होंने दृष्टान्ताभास कहा है तथा अन्वयदृष्टान्ताभास और व्यतिरेकदष्टान्ताभास दोनोंके उक्त प्रकारसे दो-दो भेद प्रदर्शित किये हैं । उपनयाभास और निगमनाभासका इन्होंने भी निर्देश किया है। दोनोंका व्यत्यय ( विपरीतक्रम से कथन करना उपनयाभास तथा निगमनाभास है। बालप्रयोगाभासका इन्होंने प्रतिपादन नहीं किया।
२. चारुकीर्ति-चारुकोति यद्यपि माणिक्यनन्दिके व्याख्याकार होनेसे उनका हो अनुसरण करते हुए मिलते हैं फिर भी इनका अपना वैशिष्ट्य है। इन्होंने पक्षाभासादिको परिभाषाएं नव्यन्यायपद्धतिसे प्रस्तुत को है जो वस्तुतः जैनतर्कपरम्पराके लिए अभिनव है। माणिक्यनन्दिने पांच प्रकारके हो बाधितपक्षाभासोंका कथन किया था, किन्तु देवमूरिने जहाँ इनमें स्मरणनिराकृतसाध्यधर्मविशेषण और तर्कनिराकृतसाध्यधर्मविशेषण इन दो बाधितोंको सम्मिलित कर सात बाधितोंका वर्णन किया है वहाँ चारुकीतिने" इनमें एक प्रत्यभिज्ञाबाधित और मिलाकर आठका प्रतिपादन किया है तथा माणिक्यनन्दिके पंचविधत्वकथनको उपलक्षणपरक कहकर अपने अष्टविधत्वप्रतिपादनको सूत्रकारानुमत बतलाया है । इनकी अन्य विशेषता यह है कि इन्होंने नैयायिकोंके उस मतकी भी समीक्षा की है जिसमें प्रत्यक्षादिवाधिनस्थलमें बाध ( कालात्ययापादिष्ट ) हेत्वाभास माना गया है और अनुमानबाधितस्थलमें सत्प्रतिपक्ष । चारुकीर्तिका मत है कि अबाधितत्व पक्ष का लक्षण है, अतः उससे रहित (बाधितत्व )को पक्षाभास कहना तो युक्त है, किन्तु हेत्वाभास नहीं, हेतुलक्षणके अभावमें ही हेत्वाभास मानना उचित है । अन्यथा हेत्वाभासस्थलमें भी पक्षाभासके स्वीकारका प्रसंग होने से हेत्वाभासका १. एवमादयोऽप्यकिचित्करविशेषाः स्वयम्याः ।
-न्या० दी पृ० १०२ । २. वही, पृ० १०५, १०८ । ३. अनयोयत्ययेन कयनमनयोरामासः।
-वही, पृ०१२ । ४. प्रमेयरत्नालं. ६।१ आदि । ५. अत्र यद्यपि स्मृतिवाधितप्रत्यभिज्ञाबाधिततर्कबाधितानापि सम्भवादवाधितस्याष्टविधत्वमेव
युक्तं न त पंचविधत्वम् । तथापि पंचविधत्वोक्तेरुपलक्षणपरत्वादष्टविधत्वमपि सूत्रकारानुमतमेवेति बोध्यम् ।
-प्रमेयरत्नालं० ६।२०, ५० १५१ । ६. वहो, ६।२० पृ० १९२ ।