________________
अनुमानामास-विमर्श : २१५
(३) भागमबाधित'-धर्म परलोकमें असुखप्रद है, क्योंकि पुरुष द्वारा
सम्पादित होता है, जैसे अधर्म। यहां पक्ष आगमबाधित है, क्योंकि आगममें धर्म सुखका और अधर्म दुखका देने वाला बतलाया गया
(४) लोकबाधित -मनुष्यके शिरका कपाल पबित्र होता है, क्योंकि
वह प्राणीका अवयव है, जैसे शंख-शक्ति । यहां पक्ष लोकबाधित है, क्योंकि लोकमें प्राणीका अवयव होते हुए भी अमुक अवयव पवित्र और
अमुक अपवित्र माना गया है। (५) स्ववचनबाधित 3-मेरी माता बन्ध्या है, क्योंकि पुरुषसंयोग होने
पर भी गर्भ नहीं रहता, जैसे प्रसिद्धबन्ध्या। यहां पक्ष स्ववचनबाधित
है, क्योंकि स्वयं मौजूद होते हुए भी माताको बन्ध्या कह रहा है। (२) चतुर्विध हेत्वाभास : ___ माणिक्यनन्दिने पूर्व से प्रसिद्ध असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक इन तीन हेत्वाभासोंमें अकलंकोक्त अकिचित्कर हेत्वाभासको भी सम्मिलित करके चार हेत्वाभासोंका अकलंककी तरह ही वर्णन किया है। विशेष यह कि माणिक्यनन्दिने असिद्धके स्वरूपासिद्ध और सन्दिग्धासिद्ध ये दो भेद स्पष्ट प्रतिपादित किये हैं । अज्ञातासिद्ध का भी उल्लेख करके उसका सिद्ध हेत्वाभास में ही समावेश किया है और उसे सांख्यकी अपेक्षा बतलाया है। उदाहरणार्थ सांख्यके लिए 'शब्द परिणमनशील है, क्योंकि वह कृतक है' इस प्रकार कृतकत्व हेतुसे शब्दको परिणमनशील सिद्ध करना, अज्ञातासिद्ध है, क्योंकि सांख्यने कभी शब्दको कृतक नहीं जाना, वह तो उसकी अभिव्यक्ति जानता है। अनेकान्तिकके' भी दो भेदों-(१) निश्चित विपक्षवृत्ति और ( २)शंकितविपक्षवृत्तिका माणिक्यनन्दिने निर्देश करके उनका स्वरूप प्रतिपादन किया है। १. प्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् ।
-परो०,६।८। २. शुचि नर शिरः कपालं प्राण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् ।
-वही. ६।१६ । ३. माता मे बन्ध्या पुरुषसंयोगेऽत्यगर्भवात् प्रसिद्धबन्ध्यावत् ।
-वही, ६।२०। ४. हेत्वामामा असिद्धविरुद्धानेकान्तिकाकिंचित्कराः ।
-प० मु०६।२१ । ५. वही, ६।२२, २३, २४, २५, २६ । ६. वही, ६।२७-२८ । ७. वही, ६।३१-३३ ।