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अनुमानाभास-विमर्श : १११
अनुमानके तीन अवयवोंकी मान्यताके कारण तीन अनुमानाभास स्वीकार करते थे। पर अकलङ्कदेव अनुमानके मूलतः दो हो अवयव ( अङ्ग) मानते हैं-(१) साध्य और ( २ ) साधन । तीसरा अवयव दृष्टान्त तो अल्पज्ञोंकी दृष्टिसे अथवा किसी स्थलविशेषकी अपेक्षासे ही प्रतिपादित है । अतः दृष्टान्ताभास नामक तीसरे अनुमानाभासका निरूपण सार्वजनीन नहीं है। अकलङ्ककी उक्त मान्यतानुसार अनुमानाभास निम्न प्रकार हैं :साध्याभास : __ अकलङ्कसे पूर्व प्रतिज्ञाभास या पक्षाभास नामका अनुमानाभास माना जाता था। पर अकलङ्कने उसके स्थानमें साध्याभास नाम रखा है। अकलङ्कको यह नामपरिवर्तन अथवा सुधार क्यों अभीष्ट हुआ ? पूर्व नामोंको ही उन्होंने क्यों नहीं रहने दिया? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हमारा विचार है कि अनुमानके प्रयोजक तत्त्व मुख्यतया दो ही हैं-(१) जिसको सिद्धि करना है अर्थात् साध्य और (२) जिससे उसकी सिद्धि करना है अर्थात् साधन । अनुमानका लक्षण ( साधमारमाध्यविज्ञानमनुमानम् ) भी इन दो हो तत्त्वोंपर आधारित माना गया है। अतः अनुमानके सन्दर्भ में साधनदोषोंकी तरह साध्यदोष (असाध्य या साध्याभास) ही विचारणीय हैं। जब अबाधित, अभिप्रेत और अप्रसिद्धको साध्य कहा जाता है तो बाधित, अनभिप्रेत और सिद्धको साध्याभास ही माना जायेगा, क्योंकि वह (बाधितादि साध्य) साधनका विषय नहीं होता। जो बाधित है वह सिद्ध नहीं किया जा सकता, अनभिप्रेतको सिद्ध करने में अतिप्रसङ्गदोष है और प्रसिद्धको सिस करना निरर्थक है । अतः अकलङ्कदेवका उक्त संशोधन ( नामपरिवर्तन ) इस सूक्ष्म तथ्यका प्रकाशक जान पड़ता है । अतएव प्रतिज्ञाभास या पक्षाभास नामकी अपेक्षा अनुमानाभासके प्रथम भेदका नाम साध्याभास अधिक अनुरूप है। यों तो साध्यको अनुमेयकी तरह पक्ष और साध्याभासको अनुमेयाभासको भांति पक्षाभास या प्रतिज्ञाभास भी कहा जा सकता है। पर सूक्ष्म विचारकी दृष्टिसे साध्याभास नाम ही उपयुक्त है।
अकलङ्कदेवने साध्य और साध्याभासको जो परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं उनके अनुसार साध्याभासके मूल तीन भेद फलित होते हैं-(१) अशक्य ( विरुद्ध१. साधनात्साध्यविशानमनुमानं तदत्यये।
-न्यायवि० का० १७०; अनुमान प्रस्ताव (अकलं. ग्र० पृ० ५२ । २, ३. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् ।
साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ।।
-बही, का० १७२, अनु० १० अक. ग्र० पृ० ५३ ।। ४. तदविषयत्वं च निराकृतस्याशक्यत्वादनभिप्रेतस्यातिप्रसंगात्मसिद्धस्य च वैयया॑त् ।
वादिराज, न्यायवि०, वि० २१३, पृ० २२५ ।