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२०८ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान- विचार
प्रकारके हेतुओंका समावेश सम्भव है वहां यह अविदित रहता है कि विधिविधि आदि सामान्यरूपके सिवाय हेतुका विशेष ( कार्य, कारण, व्याप्य आदि ) रूप क्या है ? जब कि कणादरे, अक्षपाद और धर्मकीर्तिके हेतुभेदनिरूपण में विशेष रूप ही दिखायी देता है । अतः हेतुभेदों का यह वर्गीकरण अधिक प्राचीन हो तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि सामान्य कल्पना के बाद ही विशेष कल्पना होती है । यद्यपि कणादने' विरोधी हेतुके जिन अभूतभूत, भूत अभूत और भूतभूत तीन भेदोंका कथन किया तथा विद्यानन्दने' वैशेषिकों की ओरसे अभूतअभूत नामक चौथे भेदकी भी कल्पना की है उनका इन हेतुभेदोंके साथ कुछ साम्य हो सकता है। तब भी स्थानाङ्गसूत्रगत हेतुभेदोंकी परम्परा सामान्यरूप होनेसे प्राचीन तो है ही । अकलङ्क प्रतिपादित हेतुभेद :
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स्थानाङ्गसूत्र के उक्त हेतुभेदों को विकसित करने और उन्हें जैन तर्कशास्त्र में विशदतया निरूपित करने का श्रेय भट्ट अकलङ्कदेव को प्राप्त है। अकलङ्कदेवने हेतुके मूलमें दो भेद स्वीकार किये हैं- ( १ ) उपलब्धि ( विधिरूप ) और ( २ ) अनुपलब्धि (निषेधरूप) । ये दोनों हेतु भी विधि और प्रतिषेध दोनों तरह के साध्योंको सिद्ध करनेसे दो-दो प्रकारके कहे गये हैं । उपलब्धिके सद्भावसाधक और सद्भावप्रतिषेधक तथा अनुपलब्धि के असद्भावसाधक और असद्भावप्रतिषेधक । इनमें सद्भावसाधक उपलब्धिके भी ( १ ) स्वभाव ( २ ) स्वभावकार्य, ( ३ ) स्वभावका - रण, ( ४ ) सहचर, ( ५ ) सहचरकार्य और ( ६ ) सहचरकारण ये छह अवान्तर भेद हैं | सिद्धिविनिश्चयके अनुसार उसके छह भेद यों दिये गये हैं— ( १ ) स्वभाव, ( २ ) कार्य, ( ३ ) कारण, ( ४ ) पूर्वचर, (५) उत्तरचर और ( ६ ) सहचर । इनमें से धर्मकीर्तिने केवल स्वभाव और कार्य ये दो ही हेतु माने हैं । कणादने कार्य और कारणको स्वीकार किया है। पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर इन तीन हेतुओं को किसी अन्य तार्किकने स्वीकार किया हो, यह ज्ञात नहीं । किन्तु अकलंकने उनका स्पष्ट निर्देशके साथ प्रतिपादन किया है । अतः यह उनकी मौलिक देन कही जा सकती है । उन्होंने स्वभाव और कार्य के अतिरिक्त कारणहेतु तथा इन तीनोंको सयुक्तिक स्वतंत्र हेतु सिद्ध करके उनका निरूपण निम्न प्रकार किया है—
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१. वैशे०
१० सू० ३।१।११, १२, १३ ।
२. प्रमाणप० पृ० ७४ ।
३. सत्प्रवृत्तिनिमित्तानि स्वसम्बन्धोपलब्धयः ॥
तथा सद्व्यवहाराय स्वभावानुपलब्धयः । सद्वृत्तिप्रतिषेधाय तद्विरुबोपलब्धयः ॥ —प्रमाणसं० का २९,३० । तथा इनकी स्वोपशवृत्ति, अकलंकग्र० पृ० १०४-१०५ । ४. सि० वि० स्वो० वृ० ६ ९, १५, १६ ।