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हेतु-विमर्श : २०५
न्यायपरम्परा के प्रतिष्ठाता अक्षपादने' कणादकथित उक्त पांच हेतुभेदोंको अङ्गीकार नहीं किया । उन्होंने हेतु के अन्य तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं । वे ये हैं(१) पूर्ववत्, (२) शेषवत् और ( ३ ) सामान्यतोदृष्ट । इनमें प्रथम दो (पूर्ववत् और शेषवत् ) वस्तुतः कणादके कार्य और कारणरूप ही हैं, केवल नामभेद है, अर्थभेद नहीं । सामान्यतोदृष्ट भी, जो अकार्यकारणरूप है, कहीं संयोगो, कहीं समवायो और कहीं विरोधीके रूपमें ग्रहण किया जा सकता है । वात्स्यायनने २ न्यायसूत्रकारके साधर्म्य और वैधर्म्य प्रयुक्त द्विविध हेतुप्रयोगकी अपेक्षासे हेतुके दो भेदोंका भी उल्लेख किया है - ( १ ) साधर्म्यहेतु और ( २ ) वैधर्म्यहेतु । यथार्थ में ये हेतुके भेद नहीं है, मात्र हेतुका प्रयोग द्वैविध्य है । उद्योतकरने अवश्य हेतुके ऐसे तीन भेदोंका कथन किया है जो नये हैं । वे इस प्रकार हैं - ( १ ) केवलान्वयी, ( २ ) केवलव्यतिरेकी ओर (३) अन्वयव्यतिरेकी । उद्योतकरने' वीत और अवीत भेदसे भी हेतुके दो भेदोंका निर्देश किया है ।
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ईश्वर कृष्ण" और उनके व्याख्याकारोंन न्यायसूत्रकारकी तरह ही हेतु के तीन भेदों का प्रतिपादन किया और उन्हींके स्वीकृत उनके नाम दिये हैं । विशेष यह कि युक्तिदीपिकाकारने उद्योतकर की तरह हेतुके वीत और अवीत द्वैविध्यका भी कथन किया है । पर वह द्वैविध्य उन्होंने प्रयोगभेदसे सामान्यतोदृष्टका बतलाया है, सामान्य हेतुका नहीं । वाचस्पति मिश्र ने साख्यतत्त्वकौमुदी में हेतु (अनुमान) के प्रथमतः वीत और अवोत दो भेद प्रदर्शित किये और उसके बाद अवीतको शेषवत् तथा वीतको पूर्ववत् और सामान्यतोदृष्ट द्विविध निरूपित किया है । सांख्यदर्शन के इन हेतुभेदोंपर न्यायसूत्रकार और उद्योतकरका प्रभाव लक्षित होता है ।
१. न्यायसू० १ १/५ ।
२. द्विविधस्य पुनर्हेतोद्विविधस्य चोदाहरणस्योपसंहारद्वैते च समानम् ।
— न्यायभा० १।१:३९ का उत्थानिकावाक्य, पृ० ५१ ।
३. अन्वयो व्यतिरेकी अन्वयव्यतिरेको चेति ।
न्यायवा० ११ १५; पृ० ४६ ।
४. तावेतौ वीतावीतहेतू लक्षणाभ्यां पृथगभिहिताविति ।
वही, ११ ३५, पृ० १२३ ।
५. सांख्यका० ५ ।
६. युक्तिदी० सांख्यका० ५, पृ० ३ ।
७. तस्य प्रयोगमात्रमेदाद् द्वैविध्यम् - वीतः अबीत इति ।
वही पृ० ४७ ।
८. तत्र प्रथमं ( प्रथमतः ) तावत् द्विविधम् - वीतमनीतं । तत्रावीतं शेषवत्। वीतं
द्वेधा पूर्ववत् सामान्यतादृष्टं च ।
- सां० त० कौ० का० ५, पृ० ३०-३१ ।