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२०२ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान - विचार
हैं। उदाहरणस्वरूप भरणि और कृत्तिकोदयमें न तदुत्पत्ति सम्बन्ध है और न तादात्म्य । पर उनमें क्रमभावनियमके होनेसे अविनाभाव है और उसके वशसे कृत्तिकोदय हेतु भरणिके उदयरूप साध्यका गमक होता है। इसी प्रकार रूप और रसमें तादात्म्य और तदुत्पत्ति दोनों नहीं हैं । परन्तु उनमें सहभावनियमके सद्भावसे अविनाभाव है तथा उसके बलसे रस रूपका या उन्नाम नामका और अर्वाग्भाग परभागका अनुमापक है । माणिक्यनन्दिकी' यह सहभाव और क्रमभाव नियमको परिकल्पना इतनी संगत, निर्दोष और व्यापक है कि समस्त सद्धेतु इन दोनोंके द्वारा संग्रहीत एवं केन्द्रित हो जाते हैं और असद्धेतु निरस्त, जबकि तादाम्य और तदुत्पत्तिद्वारा पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि हेतुओंका संग्रह नहीं होता ।
प्रभाचन्द्र २, अनन्तवीर्य, अभयदेव, देवसूरि", हेमचन्द्र, धर्मभूषण, यशोविजय, चारुकीर्ति आदि तार्किकोंने भी रूप्य और पांचरूप्यकी मीमांसा करते हुए अन्यथानुपपत्तिको ही हेतुका असाधारण एवं प्रधान लक्षण बतलाया है और उसीके द्वारा त्रिविध और पंचविध आदि हेत्वाभासोंका निरास किया है । जब हेतुको अन्यथानुपपन्न कहा जाता है तो वह साध्यके साथ अवश्य सम्बद्ध रहेगा, उसके बिना वह उपपन्न नहीं होगा और न साध्याभाव के साथ रहेगा । इस तरह असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक इन तीन दोषोंका परिहार हो जाता है । तथा जब शक्य (अबाधित), इष्ट और अप्रसिद्ध साध्य " का निर्देश किया जायगा, जो हेतुका विषय होता है, उससे विपरीत बाधित, अनिष्ट और प्रसिद्धरूप साध्या
१. सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ।
सहचारिणोः व्याप्यव्यापकयोश्च सहभावः । पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः । - परीक्षामु० ३।१६, १७, १८ । २. प्रमेयक० मा० १।१५ ।
३. प्रमेयर० मा० १।११। पृ० १४२-१४४ । ४. सन्मति० टी० ।
५. प्र० न० त० ३।११, १२, १३ ।
६. प्र० मी० १ २ ९,१० ।
७. न्या० दी० पृ० ८३ ।
८. जैन तर्कभा० पृ० १२ ।
९. प्रमेयरत्नालं० ३ । १५ ।
१०. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः । - अकलंक, न्या० वि० का० १७२ ।