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१४६ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान - विचार
( ३ ) तर्क ( विपक्षबाधक अथवा व्यभिचारशंकानिवर्त्तक प्रमाणप्रदर्शन ) ( ४ ) अनुपलम्भ ( व्यतिरेक )
(५) भूयोदर्शनजनित संस्कार
( ६ ) सामान्यलक्षणा
( ७ ) शब्द और अनुमान
इनमें प्रथम के दो साधन प्रत्यक्ष सम्बन्धी स्थलोंमें और शेष अन्यत्र व्यस्त या समस्त रूपमें यथायोग्य अपेक्षित हैं ।
व्याप्तिग्रहके उपर्युक्त विवेचनसे हम इस निष्कर्ष एवं तथ्य पर पहुँचते हैं कि निःसन्देह सार्वत्रिक और सार्वदिक व्याप्तिके ग्रहणकी एक समस्या रही है और सम्भवतः इसीसे चार्वाक, जयराशिभट्ट, श्रीहर्ष आदिने अनुमानका प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया । पर यह समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न हो । हम ऊपर देख चुके हैं कि सभी अनुमान प्रमाणवादी दार्शनिकोंने उसे सुलझानेका प्रयास किया है | प्रशस्तपादने २ अन्वय और व्यतिरेक द्वारा तथा धर्मकीतिने तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति द्वारा व्याप्तिग्रहण प्रतिपादन किया है । अन्य सभी दार्शनिकोंने भूयो - दर्शन या सहचारदर्शनरूप प्रत्यक्षको व्याप्तिग्राहक बतलाया हैं । सांख्यदर्शन में विज्ञानभिक्षु' और न्यायदर्शन में वाचस्पति" ये दो ऐसे तार्किक हैं जिन्होंने तर्कको भी व्याप्तिग्रहण की सामग्री में सहायकरूपमें निविष्ट किया है। उनके बाद उदयनने उसका विशेष समर्थन किया है । वर्द्धमानोपाध्याय तो तर्कपर अधिक बल देते हुए यहां तक कहते हैं कि जो तर्कके बिना ही मात्र सहचारदर्शनसे व्याप्तिग्रह मानते हैं उनके अनुमानों में 'पक्षेतरत्व' उपाधिका होना अनिवार्य है, जिसका निवारण तर्क के बिना सम्भव नहीं हैं । पिछले सभी तार्किकोंने व्याप्तिग्रहको सामग्रीमें तर्कको विशेष स्थान दे कर उसे आवश्यक रूपमें मान लिया है ।
(च) जैन विचारकों का मत :
जैन विचारकोंने आरम्भसे ही तर्कको व्याप्तिका निश्चायक प्रतिपादन किया है । जैनागमोंमें अनुमानको अव्यवहित पूर्ववर्ती सामग्री के रूपमें 'चिन्ता' शब्दसे
१. प्रभाचन्द्र, प्रमेयक० भा० २।१, पृष्ठ १७७ ।
२. प्रश० भा० पृ० १०२ ।
३. प्रमाणवा० ११३० ।
४. सांख्यद० प्र० भा० ५। २९ ।
५. न्यायवा० ता० टी० १।१५, पृष्ठ १६६, १६७ ।
६. किरणा० पृष्ठ ३०१ ।
७. न्यायवा० ता० टी० परिशु० न्यायनिन० प्र० १९ । १५, पृष्ठ ७०१ ।
८. षट्ख० ५५/४१ तथा त० सू० १।१३ ।
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