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१४४ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान- विचार
अवश्य होते हैं । तात्पर्य यह कि प्रत्यक्षसम्बन्धिस्थलमें भूयोदर्शनजन्य संस्कारसे युक्त इन्द्रिय ही धूमादिका अग्न्यादिके साथ स्वाभाविक सम्बन्ध ग्रहण कर लेती है । पर प्रमाणान्तरगम्य सम्बन्धियोंके स्वाभाविक सम्बन्धका निश्चय भूयोदर्शनसहकृत तर्क द्वारा होता है । उल्लेख्य है कि वाचस्पति भूयोदर्शनकी सूक्ष्म विशेषताओंको व्यक्त करनेके लिए उत्तमजातिके मणिका उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार उत्तम जातिका मणि अपनी विभिन्न विशेषताओंके कारण विविध व्यवहारोंका प्रयोजक एवं धारयिताके भिन्न-भिन्न फलविशेषोंका सम्पादक अनुमित होता है और उसकी उन सूक्ष्म विशेषताओंका निर्णय जौहरी कर लेते हैं उसीप्रकार भूयोदर्शनोंकी सूक्ष्म विशेषताएं भी परीक्षक अनुमाताओं द्वारा विदित हो जाती हैं । सर्वप्रथम भूयोदर्शन काकतालीयन्यायका निरास करता है। इसके अनन्तर धूमगत सातत्य - उर्द्धवगत्यादिका विशेष ज्ञान करता है और उसके पश्चात् उपाधिशंकाको दूर करता है । वारसंख्याका उसमें नियम नहीं है । यह प्रतिपत्ताओंपर निर्भर है कि उन्हें कितने भूयोदर्शन अपेक्षित हैं। क्योंकि वे कोमल, मध्य और तीव्र बुद्धिके भेदसे अनेक प्रकार के होते हैं । अतः भूयोदर्शनकी संख्या कम-बढ़ भी हो सकती है । तात्पर्यपरिशुद्धि में उदयनने वाचस्पतिके इस आशयका वैशद्येन उद्घाटन किया है । स्मरण रहे वाचस्पतिको स्वाभाविक सम्बन्धसे व्याप्ति अभिप्रेत है, जिसे उदयनने स्पष्ट किया है ।
वर्द्धमानोपाध्याय
भृयोदर्शनकी मीमांसा करते हुए अपने पिता ( गंगेश उपाध्याय ) के मतानुसार व्यभिचारज्ञान-विरहसहकृत सहचारदर्शनको व्याप्तिग्राहक प्रतिपादन किया तथा सत्तर्कसे व्याप्तिप्रमा और तर्काभास से व्याप्ति-अप्रमाका वर्णन किया है।" उन्होंने ' तर्कपर विशेष बल देते हुए यहां तक कहा है कि जो
१-२ तस्मादभिजातर्माणभेदतत्त्ववद् भूयोदर्शनजनितसंस्कारसहित मिन्द्रियमेव धूमादोनां वयादिभिः स्वाभाविकसम्बन्धग्राहोति युक्तमुत्पश्यामः ।
— न्यायवा० ता० टी० १/१/५ पृष्ठ १६७ ।
३. यथा मणियैय विशेषैस्तत्तद्वव्यवहारविषयो भवति धारयितुश्च तत्तत्फलभेदसम्पादकश्वोन्नीयते ते ते सूक्ष्मा विशेषाः परीक्षकैमन्नोयन्ते भूयोदर्शनैस्तथात्रापीति । तथा हि प्रथमतस्तावद्भूयोदर्शनं काकतालीयन्यायव्युदासाय । तत: मृदुमध्यातिमात्रबुद्धिभेदेन पुस विचित्रशाक्तित्वात् ।
- उदयन, न्यायवा० ता० परि० १।१।५, पृष्ठ ७०१,७०२ ।
४. वही, वर्द्धमान उपाध्याय, न्यायनिबन्धम० टी० पृष्ठ ६६६-७०२ ।
५. तथा च सतर्कात् व्याप्तिप्रमा, तदभावादप्रमेति न काचित् क्षतिः । - वही, १1१/५, पृष्ठ ७०१ ।
६. येषांच तर्क' विनैव सहचारदर्शनादेव व्याप्तिग्रहः तेषां पक्षेतरत्वमुपाधिः स्यादि - त्युक्तम् ।
वही, पृष्ठ ७०१ ।