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१३८ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार (१) बौद्ध व्याप्ति-ग्रहण :
धर्मकीतिके' अनुसार व्याप्ति दो सम्बन्धोंपर आधृत है-( १ ) तदुत्पत्ति और ( २ ) तादात्म्य ।
जिन दो वस्तुओंमें कार्यकारणभाव होता है उनमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध माना गया है। जैसे धूम और वह्नि। तथा जिन दोमें व्याप्यव्यापकभाव होता है उनमें तादात्म्य स्वीकार किया गया है । यथा सत्त्व और क्षणिकत्व अथवा शिशपात्व और वृक्षत्व । इन दो सम्बन्धोंको छोड़कर अन्य कोई सम्बन्ध या प्रमाण अविनाभावका नियामक (स्थापक ) नहीं है । न ही दर्शन ( अन्वय या प्रत्यक्ष ) से उसकी स्थापना सम्भव है और न अदर्शन ( व्यतिरेक या अप्रत्यक्ष-अनुपलम्भ ) से । अर्चटन' धर्मकीतिके इस कथनका समर्थन करते हुए लिखा है कि तादात्म्य और तदुत्पत्तिके साथ अविनाभाव और अविनाभावके साथ वे दोनों व्याप्त है। जिनमें न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति उनमें अविनाभाव नहीं होता।
परन्तु पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि कितने हो ऐसे हेतु हैं जिनमें न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति, फिर भी उनमें अविनाभाव रहता है तथा अविनाभाव रहनेसे उन्हें गमक स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ 'श्व: सविताउदेता अद्यतनसवितुरुदयात्', 'शकटं उदेष्यति कृत्तिकोदयात्', 'उद्गाद्भरणिः कृत्तिकोदयात्', 'रससमानकालं रूपं जातं रसात्', 'चन्द्रोदयो जातः समुद्रवृद्धः' इत्यादि हेतुओंमें न तादात्म्य है और न कार्यकारणभाव । पर अविनाभाव है और इसलिए वे गमक है ।
१. कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् ।
अविनाभावनियमो दर्शनान्न नादर्शनात् ॥
-प्र० वा० १३०।२. तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामविनाभावो व्याप्तः, तयोरतत्रावश्यंभावात्। तस्य च तयोरेव भावा
दतत्त्वभावस्यातदुत्पत्तेश्च ( तदनायत्तत ) या तदव्यभिचार नियमाभावात् ।
-हे. बि० टी० पृष्ठ ८ । ३. चन्द्रादेलचन्द्रादिप्रतिपत्तिस्तथानुमा ॥
न हि जलचन्द्रादे: चन्द्रादिः स्वभावः कार्य वा । भविष्यत्प्रतिपद्येत शकटं कृत्तिकोदयात् । श्व आदित्य उदेतेति ग्रहणं वा भविष्यति ॥
-लघीय० का० १३, १४ । ४. तदेतस्मिन् प्रतिबन्धनियमे कथं चन्द्रादेरग्भिागदर्शनात् परमागोऽनुमोयेत ? नानयो:
कार्यकारणभावः सहैव मावात् । न च तादात्म्य, लक्षणभदात् । अलमन्यथानुपपत्तेरनवद्यमनुमानम् । -सिद्धिवि० ६२, पृष्ठ ३७३ ।