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म्याति-विमर्श : १५ तनयत्वात्, इतरतनयवत्'' इस असद्-अनुमानमें भी अन्नपानादिपरिणतिविशेष या शाकपाकजन्यत्व उपाधि विद्यमान होनेसे मैत्रीतनयत्वहेतु अपने श्यामतासाध्यका अनुमापक नहीं है।
उदयनके पश्चात् केशवमिश्र', अन्नम्भट्ट, विश्वनाथ आदि अनेक नैयायिकोंने भी व्याप्ति और उपाधिपर चिन्तन एवं निबन्धन किया है। किन्तु सर्वाधिक विचार और लेखन गंगेश उपाध्याय ( १२०० ई० )ने किया है । उन्होंने पूर्वपक्षमें प्रथमतः उन व्याप्तिलक्षणोंको प्रस्तुत करके उनकी समीक्षा की है, जो या तो अन्य ताकिकों द्वारा अभिमत हैं या उन्होंने स्वयं अपनी प्रतिभाके बलपर उनको समालोचनार्थ परिकल्पना को है। तदनन्तर सिद्धान्तपक्षके रूपमें अपना परिष्कृत व्याप्ति-लक्षण उपस्थित किया और उसमें सम्भाव्य दोपोंका परिहार करके उसे निदुष्ट सिद्ध किया है। ये सभी व्याप्तिलक्षण नव्यन्यायपद्धतिसे चचित हैं । इनपर रघुनाथ शिरोमणिने दीधिति, मथुरानाथ तर्कवागीशने माथुरी, जगदीश तौलंकारने जागदीगी और गदाधर भट्टाचार्यने गादाधरी व्याख्याएं लिखकर उन्हें विस्तृत, जटिल और दुरवबोध बना दिया है । पर दुरवबोधके कारण उनका अध्ययन-अनुशीलन अवरुद्ध नहीं हुआ, वह मिथिला और नवद्वीपसे बाहर आकर धोरे-धीरे महाराष्ट्र, मद्रास और काश्मीरम होता हुआ प्रायः सारे भारतमें प्रसृत हो गया । आजसे एक पोढ़ा पूर्व तक उक्त अध्ययनकी धारा बहती रही, परन्तु अब वह क्षीण होती जा रही है। (ग) उपाधि-निरूपणका प्रयोजन :
प्रश्न है कि व्याप्ति-निरूपणके साथ उपाधि-निरूपणका प्रयोजन क्या है ? इसका समाधान करते हुए गंगेश आदि ताकिकोंने कहा है कि यदि किसी अनुमानमें उपाधिका सद्भाव है तो स्पष्ट है कि हेतु साध्यव्यभिचारी है, क्योंकि जो साध्यके
१. न च श्यामादिपु मैत्रतनयादोनां स्वाभाविकप्रतिबन्धमम्भवः, अन्नपानपरिणतिमेदस्योपाधे: श्यामताया मैत्रतनयसम्बन्धं प्रति विद्यमानत्वेन मेत्र तनयत्वस्यागमकत्वात् ।
-न्यायवा० ता० टी०१।११५, पृष्ठ १६७ । २. तकमा० पृष्ठ ७२, ७५, ७६ । ३. तर्कसं० पृष्ठ ७८-८२ तथा ६२ । ४. सि. मु. पृ० ५३-७८ तथा १२२ । ५. त. चि०, जागदो० पृ० ७८-८२, ८६.८६, ९९.१२१, १७१, १७७, १७८, १८१,
१८६, १६७, २०१, २०२, २०६, तथा २०९.३६०।। ६. विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि, तर्कभाषा-भूमिका, पृष्ठ ४८ । ७. तथाहि-समव्याप्तस्य विषमव्याप्तस्य वा साध्यव्यापकस्य व्यभिचारेण साधनस्य साध्यव्यभिचारः स्फुट एव, व्यापकव्यभिचारिणस्तद्वयाप्यव्यभिचारनियमात् । -त. चि० उपाधिवाद, पृष्ठ ३४५ ।