________________
द्वितीय परिच्छेद व्याप्ति-विमर्श
(क) व्याप्ति-स्वरूप :
अनुमानका मूलाधार व्याप्ति है । अतएव उसका यहाँ विशेषतया स्वरूप विवेचित किया जाता है ।
1
'व्याप्ति' (वि + आप्ति) का शाब्दिक अर्थ है विशेष प्राप्ति - विशेष सम्बन्ध | उस विशेष सम्बन्धका नाम व्याप्ति है जो न विच्छिन्न होता है और न व्यभिचरित । प्रश्न है कि वह विशेष सम्बन्ध क्या है ? तर्कशास्त्र में यह विशेष सम्बन्ध उन दो पदार्थोंके नियत साहचर्यको कहा गया है जिनमें गम्यगमकभाव या साध्यसाधनभाव विवक्षित है । अथवा लिंग-लिंगी या साधन-साध्य में गमक- गम्यभाव या साधनसाध्याभावका प्रयोजक जो सम्बन्ध है वह विशेष सम्बन्ध है । यथा - विशिष्ट मेघ और वृष्टिका सम्बन्ध | सामान्यतया साहचर्य दो प्रकारका है - ( १ ) अनियत और ( २ ) नियत । अनियतका अर्थ है व्यभिचरित और नियतका अव्यभिचरित । वह्नि और धूमका सम्बन्ध अनियत सम्बन्ध है, क्योंकि कदाचित् वह्निके रहते हुए भी धूम नहीं होता । जैसे अंगारे या कोयलेकी अग्नि । इस सम्बन्ध में एककी उपस्थिति दूसरे के बिना भी सम्भव है । अतएव इस प्रकारका साहचर्य - सम्बन्ध अनियत या व्यभिचरित कहलाता है । यहाँ अनियम या व्यभिचारका अर्थ हो है एक के अभाव में दूसरेका सद्भाव । पर जिन दोका साहचर्यं नियत (अव्यभिचरित) होता है उनमें विशेष सम्बन्ध अर्थात् व्याप्ति मानी गयी है ।" यथा - धूम और वह्निका सम्बन्ध । जहाँ घूम होता है वहाँ वह्नि अवश्य होती है, जैसे -- पाकशाला । और जहाँ नहीं होती वहाँ घूम भी नहीं होता, जैसे - जलाशय । इस प्रकार धूमकी वह्निके साथ व्याप्ति है -- उस ( वह्नि ) के होनेपर हो वह ( धूम ) होता है, न होनेपर नहीं होता । अतः धूम और वह्निका साहचर्य सम्बन्ध नियत एवं अव्यभिचरित सम्बन्ध है । तात्पर्य यह कि जिस साधन और साध्य के साहचर्य सम्बन्ध में अनियम या व्यभिचार न पाया जाए उसे नियत एवं अव्यभिचरित सम्बन्ध कहा गया है और ऐसे सम्बन्धका नाम ही व्याप्ति है ।
विचारणीय है कि प्राचीन न्यायग्रन्थोंमें व्याप्तिका स्वरूप क्या बतलाया है ?
१. यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति साहचर्यनियमो व्याप्तिः ।
- अन्नम्भट्ट, तर्कसं०
नं० पृष्ठ ५४ । केशव मिश्र, तर्कभा० पृष्ठ ७२ ।