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१२८ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार __धर्मभूषणने स्वार्थानुमानका प्रदर्शक एक महत्त्वपूर्ण एवं प्राचीन श्लोक' उद्धृत किया है, जिसमें दृष्टाको स्वार्थानुमान होनेका उल्लेख है तथा 'साधनात' पदका 'दृश्यमानात्'२ ( देखे गये ) यह अर्थ देकर उन्होंने जो खास बात कही है वह यह कि अनुमानमें प्रयुक्त माधनको वर्तमानकालिक ( दृश्यमान ) होना चाहिए। इससे उस नव्यन्यायमतकी समीक्षा प्रतीत होती है, जिसमें भूत या भावि धूमादिसे भूत या भावि अग्नि आदिको सिद्धि अभिहित है। वास्तवमें जो साधन अनुभूयमान है वही अनुमानका प्रयोजक हो सकता है। किन्तु भूत या भावि साधनॊमें व्याप्ति गृहोत न हो सकनसे वे अनुमानके प्रयोजक नहीं हो सकते । 'यह यज्ञशाला अग्निमती थी या होगी, क्योंकि भूतकालमें धूम था या भविष्यमें होगा'3 इस प्रकारके अनुमान जैन दर्शनमें मान्य नहीं है, क्योंकि ऐसे हेतुओंकी व्याप्तिका ग्रहण सम्भव नहीं है । व्याप्तिके ग्रहणके लिए साधनका वर्तमान कालमें होना आवश्यक है । साध्य भले ही भूत या भावि हो।
परार्थानुमानका स्वरूप बतलाते हए धर्मभूषणने लिखा है कि प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशकी अपेक्षा लेकर श्रोताको जो साधनसे साध्य ( अनुमेयार्थ )का ज्ञान उत्पन्न होता है वह परार्थानुमान है। यहाँ भी उनका 'श्रोता' पद उल्लेखनीय है, जिसके द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि श्रोताको परार्थानुमान होता है, स्वार्थानमान नहीं। स्वार्थानुमान तो दृष्टाको होता है। मालूम होता है कि धर्मभूपणने यहां जयन्तभट्ट" और वादि देवमूरिके उस मतको आलोचना की है जिसमें उक्त ताकिकोंने श्रोताके भी स्वार्थानुमान बतलाया है और वक्ताको परार्थानुमानका प्रयोक्ता कहा है । पर हम पहले इन दोनों ताकिकोंके मतपर विचार प्रकट करते हुए कह आये हैं कि वक्ता परार्थानुमानवचनप्रयोग द्वारा श्रोताको व्याप्तिज्ञान कराता है या वक्ताके उक्त प्रकारके वचनप्रयोगसे श्रोताको व्याप्ति
१. परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम् । यद्रष्टुर्जायते स्वार्थमनुमानं तदुच्यते ।।
-न्या. दो० पृष्ठ ७५ । २. 'तदेवं परोपदेशानपेक्षिणः साधनाद् दृश्यमानाद्धर्भिनिष्ठ तया साध्ये यद्विशानं तत्स्वार्था
नुमानमिति स्थितम् ।
-वहो, पृष्ठ ७४ । ३. 'श्यं यशशाला वह्निमती भविष्यति भाविधूमात् । इयं यशशाला वह्निमत्यासीत् भूतधूमात् ।'
-सि. मु. ( टिप्प० ) पृष्ठ ५६ । ४. प्रतिशाहेतुरूपरोपदेशवशात् श्रोतुरुत्पन्नं साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः । __-न्या० दी० पृष्ठ ७५ । ५. न्या० मं० पृष्ठ १३०-१३१ ६. स्या० र० २।२३. पृष्ठ ५४८, ५४६ ।