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११४ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान- विचार
साथ उनका अन्यथानुपपन्नत्व ( व्याप्ति ) नहीं है । आशय यह कि यह नियम ( व्याप्ति ) नहीं है कि उसका पुत्र होनेसे उसे श्याम होना चाहिए, पार्थिव होने से वज्रको लोहख्य होना चाहिए और आम्रफल होने मात्र मे इन आमोंको पके होना चाहिए, क्योंकि उसका पुत्र होने पर भी वह ( गर्भस्थ पुत्र ) अय्याम सम्भव है, पार्थिव होनेपर भी वज्र अलोहलेख्य होता है और आम्रफल होनेपर भी कुछआम्रफल अपके ( कच्चे ) हो सकते हैं । अतएव ये हेतु हेत्वाभास है । अकलंकके इसी आशयको व्यक्त करते हुए उनके विवरणकार वादिराजने लिखा है
अन्यथानुपपत्तिश्चेत्, पांचरूप्येण किं फलम् । विनापि तेन तन्मात्रात् हेतुभावावकल्पनान् ॥ नान्यथानुपपत्तिश्चत पांचरूप्येण किं फलम् । मतापि व्यभिचारस्य तेनाशक्यनिराकृतः ॥ अन्यथानुपपत्तिश्चेत पांच रूप्येऽपि कल्प्यते । पारूप्यात पंचरूपत्वनियमां नावतिष्ठते ॥ पांच रूपयात्मिकैवेयं नान्यथानुपपन्नता । पक्षधर्मत्वाद्यभावेऽपि चास्याः सत्वोपपादनात् ॥
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निष्कर्ष यह कि अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्ट ही एक हेतु अथवा अनुमान है। वह त्रिविध है और न चतुविध आदि । अतः अनुमानका वैविध्य और चानुविध्य उक्त प्रकार अव्याप्त एवं अतिव्याप्त है। अकलंकके इस विवेचनसे प्रतीत होता है कि अन्यथानुपपन्नत्वकी अपेक्षामे हेतु एक ही प्रकारका है और तब अनुमान भी एक ही तरहका सम्भव है? | यही कारण है कि उन्होंने अन्यथानुपपन्नत्वके अभाव देखाभास भी एक ही प्रकारका माना है । वह है अकिचिकर । असिद्धादि तो उसीका विस्तार है ।
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इस प्रकार अकलंकने पूर्ववत् आदि अनुमानोंकी मीमांसाका सूत्रपात किया, जिसका अनुसरण प्रायः सभी उत्तरवर्ती जैन ताकिकोंने किया है । फलतः विद्या
१. न्या०वि० ० २७४ १५३२-२५३४, पृ० २५० २३. (क) साधन प्रकृतानुपपन्नं तताऽपरे। विरुद्धासिद्धसन्दिग्धा अकिचित्करावस्तराः ॥
न्या०वि० १०८ २०० पृष्ठ १६७, ४२६ (ख) अन्यथानुपपन्नत्व रहिता ये त्रिलक्षणाः । अकिचित्कारकान् सर्वान् तान् वयं संगिरामहे ॥ वही, २२०२, पृ० २३२ ।