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११२ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान - विचार
पराकृतं वेदितव्यम्' कहकर उनका निरास किया है । प्रभाचन्द्रने' भी उक्त सात अनुमानोंका सविवेचन समालोचन किया है । इससे प्रतीत होता है कि सांख्यदर्शन में सप्तविध अनुमानोंकी भी मान्यता रही है । पर यह सप्तविध अनुमानकी मान्यता सांख्यदर्शन के उपलब्ध ग्रन्थोंमें दृष्टिगोचर नहीं होती ।
चरकशास्त्र में भी न्यायसूत्र के अनुसार बिलकुल उन्हीं नामोंसे अनुमानके तीन भेद निर्दिष्ट हैं ।
बौद्ध :
बौद्धदर्शन में अनुमान -भेदोंकी दो परम्पराएँ उपलब्ध होती हैं । एक तो उपर्युक्त तीन भेदवाली न्यायसूत्रोक्त न्यायपरम्परा और दूसरी दो भेदवाली दूसरी वैशेषिकपरम्परा | पहली उपायहृदयमें मिलती है और दूसरी दिङ्नागके प्रमाणसमुच्चयमे । ज्ञात होता है कि दिङ्नागसे पूर्व चौथी शती ईस्वी तक बौद्ध दर्शन में न्यायपरम्पराका अनुसरण रहा है । दिङ्नागने उसे छोड़कर प्रशस्तपादोक्त स्वार्थपरार्थभेदयवाली वैशेषिकपरम्पराको स्वीकार किया । विशेष यह कि उन्होंने इन दोनोंका निरूपण प्रमाणसमुच्चयके छह परिच्छेदों में से दूसरे और तीसरे दो परिच्छेदों में विस्तारपूर्वक किया है । उनके नाम भी स्वार्थानुमान परिच्छेद और परार्थानुमान परिच्छेद रखे हैं । दिङ्नागके बाद उनके शिष्य शंकरस्वामीने भी इन्हीं दो भेदोंका प्रतिपादन किया है । न्यायप्रवेश में उन्होंने साधनको परसंवित् और अनुमानको आत्मसंवित् के लिए कहकर 'साधन' पदसे परार्थानुमान और 'अनुमान' पदसे स्वार्थानमान लिया है । धर्मकीर्ति" आदि उत्तरवर्ती बौद्ध तार्किक - ने दिङ्नागका अनुसरण किया और उपायहृदयकी त्रिविध भेदवाली न्यायपरम्पराको छोड़ दिया है ।
जैन तार्किकों द्वारा अनुमानभेद - समीक्षा :
प्रथम अध्याय में अनुयोगद्वारवणित पूर्ववदादि त्रिविध अनुमानोंका उल्लेख तथा स्वरूपविवेचन किया जा चुका है । परन्तु अनुयोगसूत्र की यह त्रिविध अनुमानभेद-परम्परा जैन तर्कग्रन्थोंमें अनुसृत नहीं हुई। इसका कारण यह जान पड़ता है कि इस त्रिविध अनुमानभेद - परम्पराको तर्ककी कसौटीपर रखने (परीक्षण करने ) पर वह सदोष ( अव्याप्त और अतिव्याप्त ) दिखायी पड़ी । अतएव
१. न्यायकुमु० च० ३।१४, पृ० ४६२ ।
२. चरकसू० २१, २२ ।
३. उ० हृ० पृ० १३ ।
४. न्या० प्र० पृ० १ ।
५. न्या० बि० पृ० २१, ४६ ।