________________
अनुमान-समीक्षा : कि परबुद्धि प्रत्यक्षसे अगम्य है। और इस तरह उसे कार्य हेतु-जनित अनुमान स्वीकार करना पड़ता है।
(३) यदि चार्वाकसे प्रश्न किया जाए कि आप परलोक ( स्वर्गनरकादि या जन्मान्तर ), क्यों नहीं मानते ? तो वह यही उत्तर देगा कि परलोक उपलब्ध न होनेसे नहीं है। जिसकी उपलब्धि होती है उसका अस्तित्व माना जाता है । जैसे पृथिव्यादि भूततत्त्व। उसके इस उत्तरसे स्पष्ट है कि उसे परलोकादिका अभाव सिद्ध करनेके लिए अनुपलब्धि-लिंग-जनित अनुमान भी स्वीकार करना पड़ता है।
इस विवेचनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि चार्वाकके लिए भी अनुमान प्रमाण मानना आवश्यक है। भले ही वह लोकव्यवहारमें उसे मान्यता प्रदान करे और परलोकादि अतीन्द्रिय पदार्थों में उसका प्रामाण्य निराकरण करे। पर उसको उपयोगिता और आवश्यकताको वह टाल नहीं सकता। जब प्रत्यक्ष के प्रामाण्यमें सन्देह बद्धमूल हो जाता है तो अनुमानकी कसौटीपर कसे जानेपर ही उसकी प्रमाणताका निखार होता है। इससे अनुमानको उपयोगिता दिनकर-प्रकाशकी तरह प्रकट है । वास्तवमें ये दोनों उपजीव्य-उपजीवक हैं। वस्तुसिद्धि में अनुमानका प्रत्यक्षसे कम मूल्य नहीं है । यह सच है कि प्रत्यक्ष अनुमानके मूलमें विद्यमान रहता है, उसके बिना उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्यक्षकी प्रतिष्ठा अनुमानपर निर्भर है। सम्भवतः इसीसे 'युक्त्या यन्न घटामुपैति तदहं दृष्ट्वाऽपि न श्रधे', 'प्रत्यक्षपरिकालतमप्यथ. मनुमानेन बुभुत्सन्ते तकरसिकाः जैसे अनुमानके मूल्यवर्द्धक वाक्य उपलब्ध होते है और यही कारण है कि अनुमानपर जितना चिन्तन हुआ है-स्वतन्त्र एवं संख्याबद्ध ग्रन्थोंका निर्माण हुआ है--उतना किसी अन्य प्रमाणपर नहीं । व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित, विज्ञान प्रभृति सभी पर प्रायः अनुमानका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। लोकव्यवहारमें अल्पज्ञ भी कार्यकारणभावकी श्रृंखला जोड़ते हैं। बिना पानीके प्यास नहीं बुझती, बिना भोजनके क्षुधा शान्त नहीं १. प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसमावः प्रतिषेधाच्च कस्यांचत् ॥
-उद्धत-प्र०प० पृष्ठ ६४।। यह कारिका जैन ग्रन्थों में धर्मकोर्ति के नामसे उद्धृत पायी जाती है। पर वह उनके
प्रमाणवार्तिकमें उपलब्ध नहीं है। २. 'यदि पुनर्लोकव्यवहाराय प्रतिपद्यत एवानुमानं लौकार्यातकैः, परलोकादावेवानुमानस्य निराकरणात, तस्याभाबोदिति मत्म, तदापि कुतः परलोकाद्यभावप्रतिपत्तिः ?
--विद्यानन्द, प्र०प० पृष्ठ ६४ । ३. अकलंकदेव, अष्टश० अष्टस० पृष्ठ २३४, उद्धृत । ४. गंगेश, त० चिन्ता० पृष्ठ ४२४ । १२