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८० : जैन तर्कशास्त्र में
नियमित हैं । इस प्रकार के अभिमुख और नियमित पदार्थों में जो बोध होता है वह अभिनिबोध है |
दूसरे स्थानपर अभिनिबोधकी व्याख्या इस प्रकार उपलब्ध होती है
तत्थ अहिमुह-णियमिदस्थस्स बोहणमाभिणिबोहियं णाम णाणं । को अहिमुहत्थो ? इंदियों दियाणं गहणपाओग्गो । कुदो तस्स नियमो ? अण्णस्थ अप्पत्तदो । अस्थिंदियालोगुवजोगेहिंतो चेव माणुसेसु रूवणाणुप्पत्ती । अस्थिदियउजजोगेहिंतो चेत्र रस-गंध-सद- फासणाणुष्पत्ती । दिट्ठ- सुदाणुभूदट्ट-मणेहिंतो इंदियापत्ती । एसो एत्थ नियमो । एदेण नियमेण अभिमुहत्थेसु जमुप्पज्जदि णाणं तमाभिणिबांहियणाणं णाम ।'
- विचार
अनुमान -
इसका तात्पर्य यह है कि अभिमुख और नियमित अर्थका जो ज्ञान होता है उसे आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं । अभिमुखका अर्थ है इन्द्रिय और गोइन्द्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य अर्थ और नियमितका आशय है अभिमुखको छोड़ कर अन्यत्र इन्द्रिय और नोइन्द्रियकी प्रवृत्ति न होना । अर्थात् अर्थ, इन्द्रिय, आलोक और उपयोगके द्वारा मनुष्योंको रूपज्ञान होता है । अर्थं, इन्द्रिय और उपयोगके द्वारा रस, गन्ध, शब्द और स्पर्शज्ञानकी उत्पत्ति होती है । दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थ तथा मनके द्वारा नोइन्द्रियज्ञान उत्पन्न होता है, यह यहाँ नियम है -- नियमितका अर्थ है । इस नियम के अनुसार अभिमुख अर्थोंका जो ज्ञान होता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान है ।
अभिनिबोधकी इन दोनों व्याख्याओंमें यद्यपि स्वार्थानुमान अर्थ परिलक्षित नहीं होता तथापि यह स्पष्ट है कि दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थका मन द्वारा जो ज्ञान होता है वह भी अभिनिबोध है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ( स्वार्थ ) चारों ज्ञान यतः दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थ में हो मन द्वारा होते हैं, अतः इन सब ज्ञानोंको अभिनिबोध कहा जा सकता है। अकलंकदेवने ? इन ज्ञानोंको मनोमतिज्ञान अथवा अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है। तथ्य यह है कि उन्होंने ज्ञानविशेषके अर्थ में अभिनिबोधको दिया है । और इसीसे उन्होंने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क इनके स्वतन्त्र निर्देशके साथ अभिनिबोधका भी स्वतन्त्र उल्लेख करके उन सभीको अनिन्द्रियप्रत्यक्ष अथवा मनोमति प्रतिपादित किया है। उनका अभिप्रेत वह ज्ञानविशेष स्वार्थानुमान ही सम्भव है । वीरसेन द्वारा अभिनिबोधका मतिज्ञानसामान्य अर्थ किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि वे जिस षट्खण्डागमके व्याख्याकार हैं उसमें सर्वत्र अभिनिबोध ( आभिनिबोधिक ) शब्द मतिज्ञान
१. ६० टी०, ५/५/२१, पृ० २०६, २१० ।
२. लघी० स्वो० वृ० का ० ६१ तथा ६६ ।