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७८ : जैन तर्कशाबमें अनुमान-विचार
यः साध्यामिमुखो बोधः साधनेनानिन्द्रियसहकारिणा नियमित: सोऽमिनिबोधः स्वार्थानमानमिति ।
मन सहकृत साधन द्वारा जो साध्याभिमुख एवं नियमित बोध होता है वह अभिनिबोध है और यह स्वार्थानुमान है।
यहाँ विद्यानन्द द्वारा एक महत्त्वपूर्ण शंका-समाधान भी प्रस्तुत किया गया है।
शंकाकार शंका करता है कि इन्द्रिय और मन दोनोंसे होनेवाला नियमित और स्वविषयाभिमुख बोध ही अभिनिबोध प्रसिद्ध है न कि केवल मन सहकृत लिंगसे होनेवाला लिंगीका नियमित बोध । अन्यथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क ये अभिनिबोध नहीं हो सकेंगे। ऐसी स्थितिमें अपरिहार्य सिद्धान्तविरोध आता है ?
इसका समाधान उपस्थित करते हुए विद्यानन्द कहते हैं कि हम अभिनिबोधका यह व्याख्यान नहीं कर रहे कि लिंगजन्य ही बौध अभिनिबोध है, अपितु यह कह रहे हैं कि शब्दयोजनासे रहित लिंगजन्य बोध अभिनिबोध हो है । इस प्रकारके कथनसे लिंगजन्य बोधको अलग प्रमाण नहीं मानना पड़ेगा और सिद्धान्तका संग्रह भी हो जाएगा। इन्द्रिय और मन दोनोंसे हो होने वाला स्वविषयाभिमुख एवं नियमित बोध अभिनिबोध है, ऐसा सिद्धान्त नहीं है, अन्यथा स्मृति आदि अभिनिबोध नहीं माने जा सकेंगे, क्योंकि वे मनसे ही उत्पन्न होते है । अतः मनसे भी उत्पन्न होने वाला बोध अभिनिबोध सिद्धान्तसम्मत है।
विद्यानन्दके इस विस्तृत एवं विशद विवेचनसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रमें मतिज्ञानके पर्यायनामोंमें पठित अभिनिबोधसे स्वार्थानुमानका ग्रहण अभिप्रेत है। विद्यानन्द बलपूर्वक यह भी कहते हैं कि यदि लिंगज बोध-स्वार्थानुमानको अभिनिबोध नहीं माना जाएगा तो उसका स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्कम अन्तर्भाव न होनेसे उसे अलग प्रमाण स्वीकार करना पड़ेगा । अतः हमने लिंगज बोधको अभि
१. इन्द्रियानिन्द्रियाभ्यां नियमितः कृतः स्वविषयाभिमुखो बाधाऽभिनिरोधः प्रसिद्धो न पुनरनिन्द्रियसहकारिणा लिंगेन लिंगिनिर्यामत: केवल एव...... ।
सत्यं स्वाथानुमानं तु विना यच्छब्दयाजनात् । तन्मानान्तरतां मागादिति व्याख्यायते तथा ।। न हि लिंगज एव बोधोऽमिनिबोध इति व्याचक्ष्यहे। कि तर्हि । लिंगजो बाघः शब्दयोजनरहितोऽमिनिबोध एवेति तस्य प्रमाणान्तरत्वनिवृत्तिः कृता भवति सिद्धान्तश्च संगृहीतः स्यात ।
-त० श्लो० भा० १।१३।३८७.३८८, पृ० २१६ । १. अकलंकदेव भी स्मृति, प्रत्यमिशा, तर्क और अभिनिबोध इन चारों शानोंको मनोजन्य