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जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ७५
होने वाले यदि और भी ज्ञान हों तो वे सब परोक्षान्तर्गत ही हैं । इस प्रकार परोक्षका क्षेत्र बहुत विस्तृत और व्यापक है ।
इसके मुख्यतया पाँच भेद माने गये हैं। ४ अनुमान और ५ आगम ।
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-१ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क
पूर्वानुभूत वस्तुके स्मरणको स्मृति कहते हैं । २ यथा 'वह' इस प्रकारसे उल्लिखित होने वाला ज्ञान । अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञा या प्रत्यभिज्ञान या संज्ञा है । जैसे- 'यह वही देवदत्त है' अथवा 'गौके समान गवय होता है' या 'गोसे भिन्न महिष होता है' आदि । उपमान प्रमाण इसीका एक भेद - सादृश्यप्रत्यमिज्ञान है । अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक होने वाला व्यप्तिका ज्ञान तर्क है । इसोको ऊह अथवा चिन्ता भी कहा गया है । इसका उदाहरण है— इसके होने पर ही यह होता है और नहीं होने पर नहीं हो होता । जैसे - अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्निके अभावमें धूम नहीं होता । निश्चित साध्याविनाभावी साधनसे होने वाला साध्यका ज्ञान अनुमान कहलाहा है । " यथा — धूमसे अग्निका ज्ञान करना । शब्द, संकेत आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है । जैसे – 'मेरु आदिक है' शब्दोंको सुन कर सुमेरु पर्वत आदिका बोध होता है। ये सभी ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं । " स्मरणमें अनुभव; प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण; तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान; अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण और आगममें शब्द एवं संकेतादि अपेक्षित हैं, उनके बिना उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । अतएव ये और इस जातिके अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं ।" इस प्रकार अनुमानको जैनदर्शन में परोक्ष प्रमाणका एक भेद स्वीकार किया है ।
१. प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागममेदम् ।
- माणिक्यनन्दि, प० मु० ३।२ ।
२. वही, ३३,४ ।
३. वही, ३ ५,६ ।
४. वही, ३ ७, ८, ६ ।
५. वही, ३ १०, ११ ।
६. वही, ३ ६५, ९६, ९७ ।
७. अकलंक, लघीय ० स्वो० वृ० का० १० ।
८. 'अर्थापत्तिरनुमानात् प्रमाणान्तरं नवेति किन्नश्चिन्तया सर्वस्य परोक्षेऽन्तर्भावात् ।'
- अकलंक, लघीय० स्वो० वृ० का० २१ ।