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जैन स्वाध्यायमाला
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जो पव्वइत्ताण महव्वयाई, सम्म च नो फासयई पमाया। प्रणिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलमो छिन्नइ बंधणं से ।३६। ओउत्तया जस्स न अस्थि काइ, इरियाए भासाए तहेसणाए । आयाण-निक्खेव-दुगुछणाए, न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ।४०॥ चिरऽपि से मुण्डरुई भवित्ता, अथिरव्वए तव-नियमेहिं भट्ठे । चिरऽपि अप्पाण किलेस इत्ता, न पारए होइ हु सपराए ४।१। पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे, अयतिए कूड-कहावणे वा। राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ हु जाणएसू ।४२। कुसीललिग इह धारइत्ता, इसिज्मय जीविय बूहइत्ता । असंजए संजयलप्पमाणे, विणिग्घाय-मागच्छइ से चिरंपि ।४३॥ विस तु पियं जह कालकूड, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसोऽवि धम्मो विसोववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो।४४॥ जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे, निमित्तकोऊहल संपगाढे । कुहेड-विज्जा-सवदारजीवी, न गच्छई सरण तम्मि काले ।४५३ तम तमेणेव उ से असीले, सया दुही विपरियामुवेइ। सधावई नरग-तिरिक्ख जोणि, मोणं विराहेत्तु असाहुरूवे ।४६। उद्देसियं कोयगड नियागं, न मुचई किंच अणेसणिज्ज । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इत्तो चुए गच्छइ कट्ट पावं ।। न तं परो कण्ठ छेत्ता करेइ, ज से करे अप्पणिया दुरप्पया। से नाहई मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दया-विहूणो ।४८॥ निरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तम विवज्जासमेइ। इमेऽवि से नत्थि परेऽवि लोए,दुहनोऽवि से झिज्जइ तत्थ लोए । एमेवऽहाछदकुसीलरूवे, मगं विराहित्तु जिणुत्तमाणं ।