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जैन सुबोध गुटका |
( ७७ )
तुम रण्डीबाजी छोड़ दो ॥ अय० ॥ १ ॥ धन होवे किस कदर, इस चिन्ता में मशगूल रहे । मतलब की पूरी यार है, तुम
राडीबाजी छोड़ दो || २ || काम अन्ध पुरुष को, मकड़ी के मुश्राफिक फांसले । गुलाम अपना वह बनावे, रण्डीबाजी छोड़दो || ३ || विषय अन्ध होके सभी, वह माल घरका सोपदे । मतलब बिना आने न दे, तुम रण्डीबाजी छोड़ दो ॥ ४ ॥ इसकी सोहबत में बड़ों का, बड़प्पन रहता नहीं । पानी फिरावे आबरू पर, रण्डीबाजी छोड़दो ॥ ५ ॥ सुजाक गर्मी से सड़े, मुंह पर दमक रहती नहीं । कमजोर हो कई मर गये, तुम रण्डीबाजी छोड़ दो ||६|| भरोसा कोई नहीं गिने, धर्म कर्म का होता है नाश | चौथमल कहे अय रफीकों, रण्डीवाजी छोड़दो ॥ ७ ॥
११७ प्रबोधन
(तर्ज- ख्वाजा लेले खवरिया हमारीरे )
तेने वातों में जन्म गुमायारे, नहीं प्रभु से ध्यान लगाया रे ॥ टेर ॥ साणी मीठी बातें बना कर, लोगों को ठग २ खायारे ॥ तेने० ॥ १ ॥ तेरी मेरी करता, मिजाज में फिरता । खाली साफे का पेंच झुकाया रे ॥ २ ॥ पश ख्याल में माल लुटाया, नहीं दया दान में हाथ उठायारे ॥ ३ ॥ गरीबों के ऊपर तू करता है शक्ति, नहीं रहम जरा तू लाया दे ॥ ४ ॥ दारू भी पीवे भंग भी पीछे, पर नारी से प्रेम लगाया रे ॥ ५ ॥ लाखों रुपये का माल कमाया, पैसा साथ नहीं आया रे ॥ ६ ॥ पाप करी प्राणी गया नर्क में, फेर घणा पछताया रे ॥ ७ ॥ कहे यमदूत गुरज उठाकर ले भोग जो तेने कमायारे ॥ ८ ॥ चौथमल