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जैन सुवोध गुटका। (२६) खूब तन, डोले तू बन ठन । मिट्टी में मिल जावेगा ॥ १ ॥ पापों को कर कर, खजाने को भर भर; कौड़ी साथ नहीं जावेगा ॥ २॥ यौवन के अंधे, पड़े भोगों के फंदे सो आगे पछतावेगा ॥ ३ ॥ जागना हो तो जाग अज्ञानी, ऐसा समय कब पावेगा ॥ ४ ॥ गुरु प्रसाद चौथमल कहे, धर्म से सुख प्रगटावेगा ॥५॥
४२ शाल का फल. (तर्ज-या हसीना बस मदीना करवला में तू न जा)
तारीफ फैले मुल्क में, एक शील के परताप से । सुरेन्द्र नमे कर जोड़ के, एक शील के परताप से ॥ टेर ॥ शुद्ध गंगाजल जैसा, चिन्तामणि सा रत्न है । लो स्वर्ग मुक्ति भी मिले, एक शील के परताप से ॥ १॥ आग का पानी बने, हो सर्प माला पुष्प की । जहर का अमृत बने एक शील के परताप से ॥ २॥ विपिन में वस्ति बने, हो सिंह मृग समान जी । दुश्मन भी किङ्कर बने, एक शील के परताप से ॥ ३ ॥ चंदनवाला कलावती, द्रोपदी सीता सती । सुखी हुई मेनासती, एक शील के परताय से ॥४॥ गुरु के परसाद से, करे चौथमल ऐसा कथन । सुर संपति उसको मिले, एक शील के परताप से ॥ ५ ॥
४३.संसार स्नेह असत्य, (तर्ज-ना छेड़ो गाली दंगारे भरवादो मोए नीर) .. मैंने अच्छी तरह से जानीरे, दुनियां की झूठी प्रीत ।