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________________ (३२४) जैन सवोध गुटका । में भल के आवे मती ॥ र जितने पदार्थ जगत में, दिखते हैं तुमको नैन से | नाशवान् हैं ये सभी, जानले प्रभु बैन से ॥ इसमें कोई भी संशय लावे मती ॥१॥ रात में पाया स्वभ, जैसे किसी कंगाल को । बन गया वह वादशाह भर-भर उड़ावे माल को. ॥ बोले हुक्म से वाहिर: 'जावे सती ॥ २॥ बैठा सिंहासन आपके सिर छत्र और चंवर दुरे । हुरमा खड़ी है सामने, सज धज के वह लटका कर ।। झूठी जाल में कोई ललचावे मती ॥३॥ मुंदी है आंखें ये जब तक, ठाठ है मानो सही । खुलाई जब आँख तो,आता नजर फिर कुछ नहीं । ऐसी जान जगत् में लुभाव मती ॥४॥ छोड़कर गर्फलंत को तुम, अब तो जरा श्रोसान लो । गुरु के प्रसादे 'कहे चौथमल अंब मानलो।। धर्म छोड़ अधर्म कमावे मती ॥५॥ · नंबर ४३६....: [तर्ज-पूर्ववत् मुझे भूल के जालिम सतावे मती। मेरे धर्म में दखल पहुंचावे मती ॥ टेर..।। है तुझ मालुम नहीं क्या, मैं हूं दुश्मन जानकी । इन्द्र से भी न , डिगू, ताकत है क्या इन्सान की ।।. संय मृत्यु का मुझको दिखावे मती ॥ १ ॥ प्राण से भी तो अधिक प्यारा मुझे सद्धर्म है । हरगिज न
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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