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(२४०) : जैन सुवे.ध गुटका। कैसा वना कुसंगासिंह होय शुनि से राच, बिगड़ गयो सब ढंग हो । विषय० ॥ ७ ॥ इस पापिन ने श्रायको, दिदा मान उतार । सुध न लेव बालमारे, यही दुःख अपार हो ॥ विषय० ॥ ६ ॥ निर्दय हो ऐसी कगरें, मति एक मिलाय । कामिनी को विष खिलाई, दी यमलोक पहुंचाय हो । विषय० ॥ १०॥ दग्ध क्रिया करने नहीं देरे मोह वश महाराज । अन बोला मुझसे लियोरे, रूठ गई है आज हो ॥ विषय० ॥ ११॥ चौथे दिन खुद राजवी रे, देखी बूंघट हटाय । दुर्गन्ध सही जावे नहारे, दी फिर तुरत जलाय हो । विषय०॥ १२ ॥ नित्य पणो विचार नेरे, पुत्रको राज भोलाय । संयम ले करणी करीरे, गया स्वर्ग के माय हो । विषय० ॥ १३ ॥ साल इक्यासी मायनेरे, चार भुजा के माय । गुरु प्रसाद चौथमल तो, सब ने रहा चेताय हो । विषय० ॥१४॥
३३५ अहिंसा.
(तर्ज-दादरा) क्यों प्राणियों के प्रानं सताओरे॥टेर ॥ आठों जाम तृण लिए रहें मुंह में, उस पे क्यों तेग उठाओरे, ।। क्यों. ॥१॥ खा खा के गोश्त तुम अपने जिस्म पै, क्यों हिंसा का बोझ उठानोरे ॥ क्यों ॥२॥पढ़ पढ़ के., मंत्र पशु.