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जैन सुबोध शुष्टया।
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२७४ सेवा फल.
(तजे-दादरा) अब खोल दिल के चश्म जरा गौर कीजिये । चाहे भला तो सतगुरु की, सेवा कीजिये ।। टेरा मिला मनुष्य जन्म, नेक काम कीजिये । मात तात कुटुम्ब चीच चित्त न दीजिये । अब० ॥१॥ जेवर खजाना देखके, मत इसमें रीझिये । गुल बदन हुस्न पायके, मत गर्व कीजिये ।। ॥ २॥ इस खल्क बीच प्राय के, पर दुख हर्गजिये । प्राता साथ धर्म माल, सो भरीनिये ॥ श्रव ॥ ३॥ मद मांस
और परनार के, संग से टरीजिये । जुल्मों जहर के प्याले को न, भूल पीजिये ।। अर।।४॥ सत शील शुद्धाचार जिगर में रूचीजिये । कहे चौधमल जिनेन्द्र चरण, चिच धरीजिये। अब ॥५॥
२७५ रात्री भोजन निषेध,
(तर्ज-शेरखानो दादर) मना रात का खाना सरासर है। टेर। चिरियां कपोत, कौमा,नहीं रात चुगन जाय ! इन्सान होकर बेहया, तू रात को क्यों खाय ! क्या मनुष्य पशु बराबर है । मना० ॥१॥ पतंग, कीट, कुन्धुसा, भोजन में पड़े भाग दीपक की लो पर घमते, देखोनिगाह लगाय । अरे जीव भरत चराचर है। मना०॥२॥ करुया कोवो की विदा, जीदों