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जैन मुंबोध गुटका ।
. . . . . . २५१ दुराचरण से हानि. . . . . .. . . .(तर्ज-मज़ा देते हैं क्या यार तेरे) :
कैसे इजत रहे तुम्हारी, हो पर नार के जाने वाले। पर नार के जाने वाले, कुल में दाग लगाने वाले ॥टेर।। इतर फुलेल लगाई, फिर टेड़ा पेंच झुकाई । पोशाक को खूब सजाई, हवा के खाने वाले ।। कैसे० ॥१॥ गलियों में चक्कर लगावे, कोई नार नजर आजावे । फिर वांही गात खावे, नहीं पैर बढ़ाने वाले ॥२॥ नहीं नींद रात को आती, सुपनेमें वही दिखाती । रोटी भी पूरी नहीं भाती,कड़े न भूख बहाने वाले ॥ ३॥ जब गरमी रोग बढ़ जावे, घरे पांव चला नहीं जाये। कहने में बहनं शरमांव, ऐसे दुखं उठाने वाले ॥ ४ ॥ फिर पति वात सुन पावे, जूतों से मार लगावे । खा मार चुग रह जावे, नहीं मुख के उठाने, चाले ॥ ५ ॥ हो खबर मुकदमा चढ़ता, हाकिम भी न्याय यहीं करता। वहां पर भी सजा वही पावे, तन धन को गाने वाले॥ ६ ॥ देखो जैसी नार तुम्हारी, वह करे और . से यारी, । नहीं बात लगे तुम्हें प्यारी, समझो कहे समझाने वाले ।। ७ ।। सुनोरे शोकीन लाला, क्या युवा वृद्धा । वाली । पर त्रिया का मुंह काला ! बचो कहे बचाने वाले ॥ ८॥ गुरु हीरालालजी ज्ञानी, कहे चौथमल यह बानी । उत्तम ने दिल में ठानी, अच्छी नजर लगाने वाले ॥६॥