________________
जन सुबोध गुटका।
(२६५)
.
.
.
.
.
.
.
.
.
..
"
"
.
..
.
कभी उदासी..छाचे, सदा सुख बोच दिन जावे । परोपकार चित्त चावे, मुख सौम दिखाने वाली ॥३॥ सत्य वदे सरल स्वभावे, दया दान करे हुलसावे । दीर्घ दृष्टी खूब लगावे, न लड़ लड़ानेवाली ॥४॥ पति सिवा पुरुप जग माही, जानें समझे बाप और भाई । उसकी करते सर्व बड़ाई, ऐसे गुण धरने वाली ॥ ५॥ दमयंती सीता रानी, चलना को वीर वखानी । रुखमन और तारा नार, सत्य धर्म निभाने वाली ॥ ६ ॥ चौथमल को शिप्य बनाया, गुरु हीरालाल मुनिराया । सत्तवती का जिकर सुनाया, जो शोभा बढ़ाने वाली ॥ ७ ॥
२४८ मान त्याज्य.
(तर्ज--पंजार) सद्गुरू देव ज्ञान, सजन मत करना मान || टेर || मान वरावर श्ररि नहीं रे, मान करे अपमान । मान करे चिंता को उत्पन्न, बहु अवगुण की खान, फर्क इसमें मत जान ।। सद्॥ १॥ मद कहा है मदिरा जैसा, नहीं थाने दे ज्ञान । जाति, कुल, चल रूप लाभ तप, सूत्र माल की स्थान । विनयकी करता हान ॥२॥ मगरूरी वश मूछ मरोड़े. टेडो २ झांके । श्राप बड़ाई परकी नीची, वात चातमें फांके । फूल रहा फूल समान ॥३॥ बज दांत और चत, ण, लिजो मिन पहिचान, ये चारों गनिके